भाजपा के प्रदेश प्रवक्ता ने कहा , पंजाब को छोड़कर कांग्रेस ने हर राज्य में हार का ही सामना किया
राहुल गांधी की अगुवाई में कांग्रेस पार्टी अब तक 24 चुनाव हार चुकी
राहुल राजनिति में मात्र गांधी होने की वजह से हैं
गुरुग्राम : भारतीय जनता पार्टी हरियाणा प्रदेश प्रवक्ता रमन मालिक ने राहुल गांधी के नेतृत्व पर सवाल उठाते हुए कहा हैं की कर्नाटक चुनावों ने एक बात तो साफ कर दी है कि कांग्रेस और खास तौर पर राहुल गांधी को ज्यादा काम करने की जरूरत है। उन्हें समझ लेना चाहिए कि राजनीति पार्ट टाइम नहीं हो सकती। ये चौबीस घंटे और बारह महीनों का काम है। इतना आसान नहीं है लोगों के बीच अपनी छवि को सुधार लेना और एक डूबी हुई पार्टी को पार लगा देना। राहुल की लीडरशिप को लेकर जो सवाल लगातार उठते रहे हैं कर्नाटक के बाद ये हमले शायद अब तेज हो जाएंगे। उनके अध्यक्ष और उससे पहले उपाध्यक्ष बनने से लेकर एक पंजाब को छोड़कर कांग्रेस ने हर राज्य में हार का ही सामना किया है।
आंकड़ा कहता है कि राहुल गांधी की अगुवाई में कांग्रेस पार्टी अब तक 24 चुनाव हार चुकी है। सवाल ये उठने लगा है कि क्या राहुल सही में कांग्रेस की हालत को सुधार पाएंगे। इतनी बुरी गत तो इस पार्टी की पहले कभी नहीं हुई। क्या राहुल चुनावों को लेकर रणनीति बनने में पूरी तरह विफल साबित हुए हैं? क्या उनकी छवि को लोग स्वीकार नहीं कर रहे हैं? क्या राहुल गांधी अभी तक अपनी टीम तैयार नहीं कर पाएं हैं? ये कई बड़े सवाल हैं। सबसे पहले बात कर लेते हैं टीम की। कांग्रेस पार्टी ने देश को बड़े नेता दिए है लेकिन वो सब अब गुजरे जमाने की बाते हो चुकी हैं। फिलहाल तो कांग्रेस में बड़े चेहरों के नाम पर कुछ ही लोग बचे हैं जैसे (रोबोट प्रधानमंत्री बने) डॉ. मनमोहन सिंह, (सोनिया गांधी के वित्तीय सलाकार) पी. चिदंबरम, (सोनिया गांधी के राजनितिक सलाकार) अहमद पटेल, किसी ज़माने में गांधी परिवार की चहीती रही अंबिका सोनी, डॉ. कर्ण सिंह, (सोनिया जी के हिन्दू विरोधी तुष्टिकरण की राजनिति के सलाकार) दिग्विजय सिंह, अशोक गहलौत और कुछ ऐसे ही नाम। सीधा कहें तो ये सभी चले हुए कारतूस हो चुके हैं।
कभी संजय गांधी और कभी राजीव गांधी और सोनिया की टीम का हिस्सा रहे ये लोग अब सीधी जमीन की राजनीति करने में उतने सक्षम भी नहीं हैं। ये टीम राहुल को विरासत में मिली है। इनमें से सिर्फ अशोक गहलोत ऐसे नेता दिख रहे हैं जो राहुल को थोड़ा सपोर्ट कर रहे हैं और घूम भी रहे हैं। ऐसे ड्राइंग रूम के नेताओं के साथ राहुल किसी भी सूरत में पार्टी का बेड़ा पार तो लगा ही नहीं सकते तो राहुल गांधी के सामने सबसे बड़ी चुनौती अपने लिए एक मजबूत टीम तैयार करना बन गई है।
गौरतलब हैं की राहुल राजनिति में मात्र गांधी होने की वजह से हैं, न तो उनमे राजनितिक समझ हैं और न ही भारतीय राजनिति में स्थापित होने के गुण। ऐसा नहीं कि पार्टी में उनका साथ देने के लिए युवा नेता नहीं हैं। इनकी भी एक पूरी फौज है। राजेश पायलेट के बेटे सचिन पायलेट, माधव राव सिंधिया के बेटे ज्योतिरादित्या सींधिया, जितेंद्र प्रसाद के बेटे जतिन प्रसाद, शमशेर सिंह सुरजेवाला के बेटे रणदीप सुरजेवाला, भूपेंदर सिंह हुड्डा के बेटे दीपेंद्र सिंह हुड्डा, तरुण गोगोई के बेटे गौरव गोगोई। लेकिन ये तमाम भी तो एक विरासत लेकर कांग्रेस में आगे बढ़ रहे हैं। इन सभी के पिता कांग्रेस में बड़ा नाम होते थे इसलिए इन्हें भी पार्टी ने स्वीकार कर लिया, नहीं तो इनमें एक भी ऐसा नेता नहीं है जो सड़क पर कोई बड़ा आंदोलन खड़ा कर सके। कम से कम अभी तक तो इस तरह का कोई उदाहरण दिखा नहीं।
मतलब साफ है कि इतनी बड़ी पार्टी होने बावजूद राहुल गांधी के पास अपनी कोई टीम नहीं है। उन्हें जमीन से जुड़े हुए नेताओं को उबारने की जरूरत है। उन्हें जरूरत है कि एक ऐसी टीम तैयार की जाए जो लोगों के बीच रहकर उनके मुद्दों पर काम कर सके उन्हें समझ सके और जोरदार ढंग से उठा सके, नहीं तो लोग भाषणों पर भरोसा नहीं करते और हार का आंकड़ा बढ़ता जाता है।
मलिक ने कहा की कर्नाटक में कांग्रेस सत्ता में थी और फिर से सरकार बनाने की भी भरपूर उम्मीदें जताई जा रही थीं लेकिन सीटों की संख्या 80 तक भी नहीं पहुंची। मुझे लगता है राहुल गांधी को व्यक्तिगत तौर पर इस पर विचार करना ही होगा। जब सरकार होने के बावजूद सत्ता बचाने में असफल रहे तो आने वाले वक्त में तो राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसी चुनौतियां हैं राहुल उनसे कैसे निपट सकेंगे। कांग्रेसी और उनके सामाजिक चिंतको द्वारा गुजरात चुनाव में एक विचित्र पठ कथा स्थापित करने की चेष्टा की गयी थी, यदयपि वह गुजरात के चुनाव हर गयी, उसके बाद भी कांग्रेस का वोट शेयर बढ़ा इसलिए यह एक “ नैतिक विजय हैं ” । मेरा उन सभी से यह प्रश्न हैं की जब कर्णाटक में कांग्रेस हार गयी और वोट शेयर और सीट्स की संख्या घट कर लगभग आधी रह गयी, तो क्या “ये राहुल गांधी की नैतिक हार नहीं हैं” ? क्या यह उनकी सिधांतिक और व्यक्तिगत हार नहीं हैं ? वैसे गुजरात और कर्नाटक चुनावों के दौरान राहुल ने हिंदू कार्ड खेलने की पूरी कोशिश की। कभी मंदिरों में पूजा की तो कभी कीर्तन में बैठकर भजन भी गाये। वो मठों में भी दर्शन करते और मत्था टेकते दिखे लेकिन सब विफल। इन सब के जरिए राहुल ने बीजेपी को क्षति पहुंचाने हेतु हिंदू वोटो में सेंध लगाने की कोशिश की लेकिन वो इसमें भी सफल नहीं हो सके।
यानि सवाल अब ये उठता है कि हिंदू वोटो को तोड़ने के लिए क्या कांग्रेस या राहुल गांधी के पास कोई और रास्ता भी है या नहीं ? ये उनके लिए आने वाले वक्त की सबसे बड़ी चुनौतियों में एक हो सकती है। राहुल के लिए एक चुनौती अपने सहयोगी दलों का साथ बनाए रखने की भी मानी जा रही है। कर्नाटक चुनावों के नतीजे आने के बाद जिस तरह कांग्रेस के सहयोग देने की बात पर ही जेडीएस के कुछ विधायकों ने विरोध जता दिया वो इस पार्टी के लिए चिंता पैदा कर सकता है। अगर एक व्यक्ति विशेष से पार्टी नेताओं को दिक्कत हो सकती है तो ये बात पहले क्यों नहीं पहचानी गई ? और इसका हल पहले क्यों नहीं निकाल लिया गया ? ये बातें आगे भी मायने रखेंगी। कांग्रेस के साथ जो दल हैं उनका अपने अपने राज्यों में कुछ आस्तितव है। कांग्रेस के पास सिर्फ पंजाब तब तक हैं जब तक कैप्टेन जी की मर्जी हैं ।
ऐसे में अगर कांग्रेस इसी तरह कमजोर होती रही तो क्षेत्रीय दल कांग्रेस के झंडे तले इक्कठा न होके, कांग्रेस को अपने सामान मानते हुए ही दिखाई देंगे, जिससे कांग्रेस कहीं दिखाई भी नहीं देगी। कांग्रेस की एक बड़ी समस्या और भी है और वो है आपसी फूट। ये समस्या लगभग हर राज्य में बनी हुई है। कांग्रेस के नेता हर स्टेट में आपस में ही एक दूसरे की टांग खींचने में लगे रहते हैं। इस समस्या से निपटना भी एक बड़ी चुनौती है जिसकी वजह से पार्टी का शीश नेतृत्व राजनितिक और सिधांतिक रूप से कमजोर और असक्षम सिद्ध होता रहा हैं ।
राहुल गांधी जी को दो वास्तविकताओं से अपने और कांग्रेस पार्टी को परिचित कराना होगा। पहला तो यह है कि उनको यह याद रखना होगा कि वह जिस दल के नेता है उसमें कार्यग्रत कार्यकर्ताओं का अपना आत्म सम्मान है और उनको “पिद्दी” से ज्यादा उन नेताओं और कार्यकर्ताओं की चिंता करनी पड़ेगी और प्राथमिकता भी देनी पड़ेगी। दूसरी वास्तविकता यह है की क्योंकि राहुल गांधी पश्चात संस्कृति से संबंध रखते हैं, तो उनको यह याद रखना चाहिए कि सबसे उपयुक्त व्यक्ति को एक संगठन की बागडोर समन्यता इसलिए दी जाती हैं जो इसके लिए सक्षम हो, मात्र इसलिए नही कि वह संस्था आपके परिवार ने बनाई है इसलिए आप इसके अध्यक्ष होंगे। ऐसी धारणा रखने से उस संस्थान का पतन सुनिश्चित हो जाता है। बहुत सारे कार्यग्रत परिवारिक दल ऐसे हैं जो इस बात को सिद्ध करते हैं चाहे वह महाराष्ट्र हो, पूर्वी उत्तर प्रदेश हो, उत्तर प्रदेश हो या बिहार हो।
मैं यह सुझाव इसलिए दे रहा हूं क्योंकि मैं लोकतंत्र का समर्थक हूं और लोकतंत्र के अंदर पक्ष और विपक्ष होना अनिवार्य है। लेकिन अगर कोई सत्ता पक्ष और विपक्ष अगर अपने हित को राष्ट्रहित से ऊपर रखता है तो वहां राष्ट्र और लोकतंत्र दोनों के लिए हानिकारक है।