नई दिल्ली। राष्ट्रपति रामनाथ कोबिन्द ने पांच सांसदों को उत्कृष्ट सांसद का पुरष्कार दिए जाने पर बधाई दी। संसद के केन्द्रीय कक्ष में आयोजित इस विशेष समारोह को उन्होंने संबोधित किया। राष्ट्रपति ने अपने संबोधन में कहा कि पहले राज्यसभा सदस्य, और अब राष्ट्रपति होने के नाते, संसद के अभिन्न अंग के रूप में, संसदीय व्यवस्था से सीधे जुड़े रहने का मुझे सुअवसर मिला है। इसे मैं अपना सौभाग्य मानता हूँ।
उल्लेखनीय है कि वर्ष 2013 से ही उत्कृष्ट सांसद पुरष्कार के लिए 5 सांसदों का चयन किया गया था। यह अति विशिष्ट पुरष्कार पाने वालों में अरुणाचल प्रदेश की राज्यपाल डर नजमा हेपतुल्ला, सांसद हुकुमदेव नारायण यादव, राज्यसभा में विपक्ष के नेता गुलाम नवी आजाद, दिनेश त्रिवेदी एवं भृतिहारी महताब शामिल हैं।
राष्ट्रपति के संबोधन की मुख्य बातें :
- ‘स्पीकर्स रिसर्च इनिशिएटिव’ के तीन वर्ष सम्पन्न होने के अवसर पर, विगत 24 जुलाई को, मैं ‘पार्लियामेंट अनेक्सी’ में आया था। यह इनिशिएटिव सांसदों के योगदान को और अधिक प्रभावी बनाने की दिशा में एक सार्थक प्रयास है। आज का यह ‘उत्कृष्ट सांसद पुरस्कार’ वरिष्ठ और प्रभावी सांसदों के योगदान को सम्मानित करने का एक महत्वपूर्ण अवसर है। अतः आज के इस पुरस्कार समारोह में शामिल होकर मुझे बहुत प्रसन्नता हो रही है।
- मुझे ज्ञात हुआ कि सन 2008 से, इस पुरस्कार समारोह का आयोजन, अगस्त के महीने में किया जाता रहा है। भारत के इतिहास में अगस्त महीने का एक विशेष महत्व है। आज 1 अगस्त को, ‘स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’ का उद्घोष करने वाले लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक की पुण्यतिथि है, जिनका चित्र इस सेंट्रल हॉल को सुशोभित करता है। 8 अगस्त, 1942 को ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन का प्रस्ताव पारित हुआ था और 9 अगस्त को वह क्रान्ति शुरू हुई थी जिसे ‘अगस्त-क्रान्ति’ के नाम से जाना जाता है। 15 अगस्त, 1947 को हमारा स्वराज्य पाने का सपना पूरा हुआ। ‘स्वराज्य’ मिलने के बाद ‘सुराज’ के आदर्श को परिभाषित करना, और उसे प्राप्त करना, एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है, जिसमे सांसदों का योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण होता है।
- आज ‘उत्कृष्ट सांसद पुरस्कार’ से सम्मानित होने पर, श्रीमती नजमा हेपतुल्ला, श्री हुकुमदेव नारायण यादव, श्री गुलाम नबी आज़ाद, श्री दिनेश त्रिवेदी और श्री भर्तृहरि महताब, इन सभी को, मैं बधाई देता हूँ। हम सबको उनके प्रशस्ति-पत्रों और उनके विचारों को सुनने का अवसर मिला। इन सभी ने, संसदीय गरिमा को अक्षुण्ण रखते हुए, अपने ज्ञान और विवेक के द्वारा, संसद की कार्यवाही को समृद्ध किया है। इन्होने अन्य सांसदों के लिए, अनुकरणीय आदर्श प्रस्तुत किये हैं। सदन में चर्चा-परिचर्चा तथा ‘विट और रिपार्टी’ के मर्यादित उदाहरणों को देखकर, देश के युवा प्रेरित होते हैं। उत्कृष्ट योगदान देने वाले ऐसे सांसदों को, सम्मानित करने की यह परंपरा, सराहनीय है। इसके लिए ‘इंडियन पार्लियामेंटरी ग्रुप’ तथा इस प्रक्रिया से जुड़े सभी लोगों को मैं बधाई देता हूँ।
- भारतीय लोकतन्त्र की आत्मा हमारी संसद में बसती है। संभवतः इसीलिये संसद को लोकतन्त्र का मंदिर भी कहा जाता है। सांसद, केवल किसी एक दल या संसदीय क्षेत्र के प्रतिनिधि नहीं होते हैं, वे हमारे संवैधानिक आदर्शों के संवाहक होते हैं। भारत के संविधान की उद्देशिका या preamble में जनता की संप्रभुता स्पष्ट की गई है, जिसमे कहा गया है कि, “हम, भारत के लोग …….. इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं”। ‘हम भारत के लोग’ ही सचमुच में ‘लोक’ हैं, जो हमारे लोकतन्त्र की शक्ति के स्रोत हैं।
- लोकतान्त्रिक व्यवस्था, भारत के लिए नई नहीं है। ऋग्वेद में ‘सभा’ और ‘समिति’ के उल्लेख मिलते हैं। बौद्ध सभाओं में संसदीय प्रणाली के नियमों को अपनाया गया था और ‘प्रस्ताव’, ‘सचेतक’ तथा ‘निंदा-प्रस्ताव’ जैसे पारिभाषिक शब्दों का उपयोग होता था। बुद्ध-कालीन राजनीतिक व्यवस्था के इतिहास में वज्जि, लिच्छवि, मल्ल, शाक्य और मौर्य तथा अन्य गणराज्यों के प्रमाण मौजूद हैं। लिच्छवि सभा का अधिवेशन जिस भवन में होता था, वह ‘संस्थागार’ कहलाता था। इतिहासकारों का अनुमान है कि, उस संस्था में, सभी निर्णय जनता के नाम पर लिए जाते थे। दक्षिण भारत में भी, लोकतान्त्रिक मूल्यों पर आधारित शासन व्यवस्था के, प्राचीन उदाहरण मिलते हैं। आरंभ से ही, जन-जातीय व्यवस्थाएँ भी लोकतान्त्रिक मूल्यों पर आधारित रही हैं। लोकतन्त्र की प्राचीनतम परंपरा वाले, विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र में, सांसद होने के नाते, आप सबकी ज़िम्मेदारी, और भी बढ़ जाती है।
- यह सेंट्रल हॉल, हमारी संसद के गौरवशाली इतिहास के केंद्र में रहा है। यह हॉल हमारे संविधान के निर्माण का साक्षी है। यहाँ संविधान सभा की ग्यारह सत्रों की बैठकें हुईं, जो कुल मिलाकर एक सौ पैंसठ दिन चलीं। 14-15 अगस्त, 1947 की मध्य-रात्रि के समय, इसी सेंट्रल हॉल में, संविधान सभा को पूर्ण प्रभुसत्ता प्राप्त हो गई थी। और जैसा कि हम सभी जानते हैं, 26 नवंबर, 1949 को इसी सेंट्रल हॉल में ‘भारत का संविधान’ अंगीकृत किया गया था। इस सेंट्रल हॉल में त्याग और सदाचरण के उच्चतम आदर्श प्रस्तुत करने वाली अनेक विभूतियाँ उपस्थित रही हैं। और इसी हॉल में, उन्होने न्याय, समानता, गरिमा और बंधुता के सर्वोच्च आदर्शों को समाहित करने वाले हमारे संविधान की रचना की है। इस प्रकार, यहाँ सेंट्रल हॉल में उपस्थित सांसदों के समक्ष, एक महान परंपरा को आगे ले जाने की ज़िम्मेदारी है।
- संविधान सभा में, बाबासाहेब आंबेडकर ने, 25 नवंबर, 1949 को, जो भाषण दिया था, वह आज भी, संसदीय दायित्वों को निभाने में, हम सबको, स्पष्ट मार्गदर्शन प्रदान करता है। उन्होने कहा था कि अब हमारे पास विरोध व्यक्त करने के संवैधानिक तरीके उपलब्ध हैं, अतः संविधान विरोधी ‘Grammar of Anarchy’ से बचना जरूरी है। उन्होने कहा था कि मात्र राजनैतिक लोकतन्त्र से संतुष्ट होना अनुचित होगा। सामाजिक लोकतन्त्र की स्थापना भी करनी होगी। बाबासाहेब की इच्छा थी कि ‘जनता के लिए सरकार’ चलाने के रास्ते में जो भी अड़चनें पैदा हों, उनका खात्मा करने के अभियान में, जरा भी कमजोरी नहीं आनी चाहिए। स्वतन्त्रता, समता, और भाई-चारा को वे एक दूसरे पर निर्भर मानते थे। उनकी दृढ़ मान्यता थी, कि इन तीनों में किसी एक के अभाव में बाकी दोनों अर्थहीन हो जाते हैं।
- संसद परिसर में, अनेक स्थानों पर, हमारी विरासत को व्यक्त करने वाले आदर्श अंकित हैं। इस सेंट्रल हॉल के प्रवेश द्वार के पास ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का महान संदेश लिखा हुआ है। लोकसभा की भीतरी लॉबी के प्रवेश द्वार पर जो श्लोक लिखा हुआ है उसका अर्थ है, “जो भी इस सभा के सभासद हैं, उन्हे ऊर्जा और स्फूर्ति प्राप्त हो, और वे संयम से परिपूर्ण हों”।
- संसद में निर्वाचन के पश्चात, आप सब जो पहला कार्य करते हैं, वह होता है, शपथ लेना। वह शपथ पूरे कार्यकाल के लिए प्रभावी होती है। अपनी शपथ या प्रतिज्ञा को हर हाल में निभाना, हमारी भारतीय परंपरा है। संविधान ही हम सबके लिए ‘गीता’ है, ‘कुरान’ है, ‘बाइबल’ है, ‘गुरुग्रन्थ साहब’ है। हम सभी भारत के संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा, तथा अपने कर्तव्यों का श्रद्धापूर्वक निर्वहन करने के लिए प्रतिज्ञाबद्ध हैं।
- आप सभी सांसदगण, करोड़ों देशवासियों की आशाओं और आकांक्षाओं के प्रति उत्तरदायी हैं। यह एक बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी है। देश की जनता, विशेषकर गरीब जनता, अपने प्रतिनिधियों की ओर बहुत उम्मीद से देखती है। गरीब और वंचित लोग यह आस लगाए रखते हैं कि उनके सांसद, उनके तथा उनके बच्चों के जीवन को बेहतर बनाने का हर संभव प्रयास करेंगे। इसलिए, सामान्य जनता यह देखना चाहती है कि, उसके प्रतिनिधि, सदैव उसके कल्याण में कार्यरत रहें। जनता यह भी अपेक्षा करती है कि संसद में उनकी कठिनाइयों के समाधान तथा देश के विकास पर चर्चा हो। उनकी आशाओं पर खरा उतरना ही हमारी संसदीय व्यवस्था की सफलता की कसौटी है। जन-मानस की अपेक्षाओं के अनुरूप आचरण करने में ही, संसदीय लोकतन्त्र की मर्यादा है।
- संसद की कार्यवाही के दौरान, कई सांसदों द्वारा विषयों की तैयारी, प्रस्तुति और गंभीरता ने मुझे प्रभावित किया है। इसे और व्यापक बनाना चाहिए। मुझे खुशी है कि पिछले कुछ वर्षों में सांसदों को उनके उत्तरदायित्वों के सफलतापूर्वक निर्वहन में सहायता प्रदान करने के लिए, कई कदम उठाए गए हैं। अब शोध कार्य के लिए ‘स्पीकर्स रिसर्च इनिशिएटिव’ के जरिए उन्हे बेहतर सहायता उपलब्ध है। इसके लिए, मैं लोक सभा अध्यक्ष को बधाई देता हूँ।
- मुझे जानकारी मिली है, कि कुछ राज्यों में विधायकों के लिए ऐसे पुरस्कार स्थापित किए गए हैं। मेरा सुझाव है, कि सभी राज्यों में भी ‘स्टेट असेम्बलीज़’ द्वारा सर्वोत्तम विधायकों के लिए पुरस्कार स्थापित किए जाएँ। आशा है कि लोक सभा अध्यक्ष इस बारे में पहल करेंगी।
- मैं उम्मीद करता हूँ कि, आज के ‘उत्कृष्ट सांसद पुरस्कार’, हमारे अन्य सांसदों को, उच्च-कोटि का योगदान देने की दिशा में प्रेरित करेंगे। मुझे विश्वास है कि सभी सांसद, जनता की आशाओं और आकांक्षाओं को पूरा करने, तथा भारत को विश्व के सर्वश्रेष्ठ लोकतन्त्र के रूप में प्रतिष्ठित करने की दिशा में, सफलतापूर्वक, अनवरत प्रयास करते रहेंगे।