जनगणना की तारीख़ों में हो रहे बदलाव पर राजनीतिक उफान

Font Size

नई दिल्ली : देश में हर 10 वर्ष पर कराई जाने वाली जनगणना की तारीख़ों में लगातार हो रहे बदलाव को लेकर राजनीतिक  चर्चा उफान पर है। केंद्र सरकार 2021 से लगातार तारीख़ें आगे बढ़ा रही है। कभी कोविड के नाम पर तो कभी और किसी अन्य वजह से इसे आगे किसकाया जा रहा है । खबर है कि एक बार फिर केंद्र सरकार ने इसे टाल दिया है ।

बता दें कि पिछली जनगणना 2011 में कराई गई थी। तब देश की आबादी 121 करोड़ होने का आंकड़ा सामने आया था। अधिकतर विशेषज्ञों का मानना है कि भारत की जनसंख्या चीन से कहीं आगे निकल चुकी है। इसलिए देश में आम लोगों के लिए बनने वाली कल्याणकारी योजनाओं का वास्तविक असर देखने के लिए जनगणना कराया जाना जरूरी समझा जा रहा है। जनसंख्या के आधार पर ही सरकार अपनी योजनाओं की रूपरेखा भी तैयार करती है। किसी भी योजना के लिए बजट आवंटन भी जनसंख्या पर निर्भर करता है।

भारत में जनगणना कराने का इतिहास काफी पुराना रहा है । भारत में पहली बार जनगणना वर्ष 1881 में कराई गई थी। तब का आंकड़ा बताता है कि देश की आबादी 25.38 करोड़ थी। तब से लेकर अब तक देश में राजनीतिक प्रशासनिक आर्थिक और भौगोलिक दृष्टि से बड़े परिवर्तन आ चुके हैं। ऐसे मैं यह सवाल लाजमी है कि किसी देश की बढ़ती आबादी उसके लिए फ़ायदेमंद है या नुक़सानदेह ? लगभग तीन दशक पीछे तक देश के विशेषज्ञ जनसंख्या वृद्धि को देश की अर्थव्यवस्था के लिए विस्फोटक बताते रहे हैं जबकि आज के विशेषज्ञ इस तर्क से सहमत नहीं है।

कई विशेषज्ञों का मानना है कि जनसंख्या ज़्यादा होना किसी भी देश के लिए फ़ायदेमंद ही होता है, नुक़सानदेह नहीं। तथ्य दिया जाता है कि एक व्यक्ति घर में कमाने वाला है और उसके चार बच्चे हैं। जब चारों कमाने लगेंगे तो यह उस परिवार में आर्थिक समृद्धि आ जाती है। यह नुक़सानदेह तब था जब घर में एक ही व्यक्ति कमाता था और खाने वाला पूरा परिवार होता था। वर्तमान परिस्थिति में ऐसा नहीं है।

विशेषज्ञ यह भी तर्क दे रहे हैं कि वर्तमान वैश्विक अर्थव्यवस्था में तो भारत जैसे देश में हर घर का प्रत्येक व्यक्ति, महिला या पुरुष, सब नौकरी या व्यवसाय करने लगते हैं। कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि बढ़ती जनसंख्या को चैनलाइज करने की ज़रूरत है। इसे उपयोगी मानव संसाधन बनाकर देश के विकास में लगाने की जरूरत है। इसीलिए, जनसंख्या वृद्धि अब अभिशाप नहीं, बल्कि वरदान है।

अधिकतर विपक्षी दल आरोप लगा रहे हैं कि केंद्र नरेंद्र मोदी सरकार जनगणना की तारीख़ें इस लिए आगे बढ़ा रही कि पिछड़ा वर्ग की संख्या सामने आने से देश में नई प्रकार की राजनीति होने लगेगी। अधिकतर राज्यों से जातिगत जनगणना कराने की मांग उफान पर है। बिहार जैसे राज्य में राज्य सरकार ने स्वयं ही अपने स्तर पर जातिगत जनगणना शुरू भी करा दी है । बता दें कि केंद्र सरकार द्वारा कराई जाने वाली जनगणना में अभी केवल अनुसूचित जाति और जनजाति की संख्या ही सामने  आती है।

लेकिन अब कई राज्य जातिगत गणना की माँग कर रहे हैं। ख़ासकर, पिछड़ा वर्ग की गणना कराने पर भी बल दिया जा रहा है। माना जा रहा है कि केंद्र सरकार इस विवाद से बचना चाहती है इसलिए तारीख़ें बढ़ाई जा रही हैं। पिछड़े वर्ग में कुछ जातियों का दावा है कि उनकी संख्या ही देश में सर्वाधिक है जबकि राजनीतिक और प्रशासनिक के साथ-साथ न्यायिक क्षेत्र में भी उन्हें अपेक्षित प्रतिनिधित्व नहीं मिल रहा है ऐसे में अगर जातिगत जनगणना पूरे तौर पर कराई जाती है तू अगले और पिछड़े में शामिल सभी जातियों की जनसंख्या का खुलासा हो जाएगा और संसद से लेकर सड़क तक नई मांगे उठने लगेंगी।

You cannot copy content of this page