सुभाष चौधरी
नयी दिल्ली । देश में चुनावी प्रचार चरम पर है और नेताओं ने भाषा की मर्यादा को पूरी तरह भूला दिया है।बड़े पदों पर बैठे राजनेता भी निम्न स्तर की भाषा का प्रयोग करने लगे हैं। कुछ नेता जो हमेशा इस बात के लिए ही बदनाम रहे हैं एक बार फिर उसी रंग में रंगे हुए नजर आ रहे हैं। मायावती, योगी आदित्य नाथ, आजम खान, अश्वनी चौबे, कमल नाथ, गिरिराज सिंह, उमर अब्दुल्ला, फारुख अब्दुल्ला, महबूबा मुफ्ती और गुड्डू पंडित, विनय कटियार सहित दर्जनों नेताओं ने आचार संहिता का खुले आम उल्लंघन किया। कोई व्यक्तिगत छींटाकसी कर रहा है तो कोई देश विरोधी बातें कर लोगों की तालियां बटोर रहे हैं।हालांकि कुछ मामले में निर्वाचन आयोग ने कार्रवाई की है लेकिन यह कार्रवाई उस स्तर की नहीं है जैसा अपराध नेताओं की ओर से हो रहा है। केवल चुनाव प्रचार में शामिल होने पर कुछ घंटे के लिए रोक लगा देना महज औपचारिकता सी लगती है इसलिए ही जुबान फिसलने का सिलसिला लगातार जारी है। ऐसे भड़काऊ बयानों को लेकर कार्रवाई की मांग करते हुए अब सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की गई है।
जहां एक ओर पहले भी कई बार विवादित बयान दे चुके सपा नेता आजम खान ने अपनी प्रतिद्वंद्वी के ‘‘अंडरगारमेंट्स’’ के रंग पर कथित अभद्र टिप्पणी कर चुनाव प्रचार को विभत्स रूप दे दिया तो वहीं कांग्रेस की ओर से मध्य प्रदेश के सीएम कमलनाथ ने कथित रूप से बयान दिया कि जब नरेंद्र मोदी ने ‘‘पैंट और पायजामा पहनना भी नहीं सीखा था’’, तब पूर्व प्रधानमंत्रियों जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी ने देश की फौज, नौसेना और वायुसेना बनाई थी।
आजम खान के विवादित बयान के बाद निर्वाचन आयोग (ईसी) ने कुछ समय के लिए उनके चुनाव प्रचार करने पर रोक लगा दी, उत्तर प्रदेश पुलिस ने उनके खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की और राष्ट्रीय महिला आयोग ने उन्हें नोटिस दे दिया, लेकिन खान को अपने बयान पर कोई खेद नहीं है। उनका कहना है कि उन्होंने अपने बयान में किसी का नाम नहीं लिया जबकि आजम खान के सुपुत्र विधायक ने प्रेस कांफ्रेंस कर चुनाव आयोग पर मुश्लिम विरोधी होने का आरोप लगा दिया। तर्क यह दिया कि आजम के खिलाफ इसलिए कार्रवाई हुई क्योंकि वे मुसलमान हैं और उनकी आवाज दबाने की कोशिश की गई। अब इस आरोप का चुनाव आयोग कैसे संज्ञान लेता है यह देखना होगा।
यह स्थापित तथ्य है कि इस प्रकार के विवादित बयान अक्सर एक एक सोची समझी रणनीति के तहत दिए जाते हैं ताकि मतदाताओं का ध्रुवीकरण किया जा सके। अभद्र टिप्पणी करन और चुनाव आयोग को आंखें दिखाना उनका अधिकार बन गया है। गौरक़ानूनी कदम से भी आजम खान के बेटे को फायदा होता नजर आ रहा है और उन्होंने चुनाव आयोग के फरमान को मुस्लिम विरोधी करार देने की कोशिश की।
खान के अलावा इलेक्शन कमीशन ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी और बसपा सुप्रीमो मायावती के विवादित बयानों को लेकर कुछ समय के लिए उनके चुनाव प्रचार करने पर सोमवार को प्रतिबंध की घोषणा की। उन्होंने प्रतिबंध के आदेश का अनुपालन तो किया लेकिन इनमें से किसी ने भी अमर्यादित बयान के लिए माफी नहीं मांगी।
योगी जी ने चुप्पी साध ली जबकि मायावती ने निर्वाचन आयोग को दलित विरोधी बता दिया और अपने भतीजे को चुनाव प्रचार के लिए उतार दिया। उनके भतीजे आकाश ने भी अपने तीन मिनट के भाषण में चुनाव आयोग को वोट के जरिये सबक सिखाने का आह्वान कर डाला। संवैधानिक संस्थाओं की आलोचना करना आज विपक्षी नेताओं का जन्मसिद्ध अधिकार बन गया है लेकिन सत्ता में आते ही उन्हें इन्हीं संस्थाओं में सब कुछ संविधान के अनुरूप होता दिखने लगता है।
भाजपा नेता पीएस श्रीधरन पिल्लई एक रैली में कथित रूप से यह बयान देने को लेकर अन्य दलों के निशाने पर आ गए कि मुस्लिमों की पहचान ‘‘उनके कपड़े खोलने’’ से हो जाएगी। उन्होंने स्पष्ट तौर पर खतना के संबंध में यह बातें कही। सोशल मीडिया पर यह वीडियो मौजूद होने के बावजूद पिल्लई ने इस प्रकार की टिप्पणी से इनकार किया है। किसी भी समाज के लिए यह अमर्यादित व असभ्य टिप्पणी स्वीकार्य नहीं है लेकिन वोट के ध्रुवीकरण का दृष्टिकोण उन्हें इस असभ्य व्यवहार के लिए मजबूर कर रहा है।
केंद्रीय मंत्री अश्विनी चौबे ने बिहार की पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी को ‘‘घूंघट’’ में रहने की कथित सलाह दी। पुरुष मानसिकता वाले इस बयान की आलोचना तो हुई लेकिन नेता ने माफी नहीं मांगी।
अपने तल्ख बोल व कट्टरवाद के लिए मशहूर रहे एक अन्य भाजपा नेता विनय कटियार ने संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी से कथित रूप से पूछा कि क्या वह राहुल गांधी को इस बात का सबूत दे पाएंगी कि पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी उनके पिता हैं। इससे पहले उन्होंने प्रियंका गांधी पर भी कथित आपत्तिजनक टिप्पणी की थी। हिंदुस्तानी संस्कृति इस प्रकार की व्यक्तिगत अभद्र टिप्पणी करने की इजाजत नहीं देती है लेकिन ऐसे नेता राजनीति में जगह बनाने के लिए बदजुबानी से बाज नहीं आ रहे हैं। आश्चर्यजनक रूप से मतदाता भी उनके इन शब्दों पर तालियां पीटते नजर आते हैं फिर भी लोकतंत्र में देश की जनता को समझदार और परिपक्व बताया जाता है।
राहुल गांधी पर भी कई बार निजी हमले हुए हैं, तो दूसरी ओर कांग्रेस नेताओं की ओर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर भी लगातार व्यक्तिगत हमले किए जा रहे हैं। यहां तक कि राहुल गांधी भी कई बार ऐसी गलतिबकर चुके हैं जो कानून सम्मत बिल्कुल नहीं है। तथ्यात्मक आरोप लगाना उनका अधिकार हो सकता है लेकिन सुप्रीम कोर्ट का हवाला देकर पीएम मोदी को चोर बताना गैरकानूनी ही नहीं सामाजिक अपराध भी है। राहुल गांधी को यह भी भान नहीं रहा कि एक समाज को इंगित कर सारे मोदी को चोर बताना बेहद आहत करने वाला है। अब उन पर मानहानि का केस भी दायर किया गया है। इसका रिजल्ट चाहे जो भी हो लेकिन इस प्रकार की राजनीतिक बयानबाजी राजनेताओं के गिरते स्तर को दर्शाता है।
बात की जाय मुम्बई से कांग्रेस प्रत्याशी उर्मिला मातोंडकर की तो उनके राजनीति में प्रवेश के बाद से ही उन्हें निशाना बनाकर लैंगिक हमले किए जा रहे हैं। सोशल मीडिया से लेकर उनके चुनाव प्रचार तक शाब्दिक और फिजिकल हमले भी किये जा रहे हैं। राजनीति में आना किसी भी सामान्य नागरिक का संवैधानिक अधिकार है लेकिन उनका विरोध सारी सीमाओं को लांघ कर करना अपराध है। राजनीतिक विरोध के बाजय हिंसक हमले करने की परंपरा से देश का लोकतंत्र घायल हो रहा है। मामले दर्ज करने की औपचारिकता होती है लेकिन इस रोग का यह माकूल इलाज नहीं है।
भाजपा नेता उमा भारती भी इस श्रेणी में खड़ी हो गयी। उन्होंने प्रियंका गांधी पर पूछे गए एक सवाल के जवाब में कहा कि जिसका पति चोरी के आरोप में हो, उसको तो लोग किस नजर से… चोर की पत्नी को किस नजर से देखा जाता है हिंदुस्तान उसी नजर से देखेगा उनको। प्रियंका गांधी के चुनाव लड़ने या राजनीति में आने पर बीजेपी को कोई असर नही पड़ेगा।
बलरामपुर में एक सभा को संबोधित करते हुए बड़बोले कांग्रेस नेता व पंजाब के मंत्री नवजोत सिंह सिदधू ने अल्पसंख्यक मतदाताओं से कहा आप अल्पसंख्यक होकर भी यहां बहुसंख्यक हो। आप अगर एकजुटता दिखाएंगे तो उम्मीदवार तारिक अनवर को कोई नहीं हरा सकता। इस क्षेत्र में आपका वर्चस्व 62 फीसदी का है और ये बीजेपी वाले षड्यंत्रकारी लोग आपको बांटने का प्रयास करेंगे। आप इकठ्ठे रहें तो कांग्रेस को दुनिया की कोई ताकत हरा नहीं सकेगी।’’ इन्हें इस बात का बखूबी पता है कि उनके इस प्रकार के बयान का क्या असर होगा लेकिन हिंदुओं को नकारने वाले बयान देते हैं। उस रैली मेम सिद्धू ने सिख गुरु के सम्मान में नारे लगवाए, फिर अल्लाह हु अकबर के नारे लगवाए लेकिन हिन्दू देवी देवताओं के सम्मान में कुछ नहीं कहा। उनकी मानसिकता कितनी गिर चुकी है इसका अंदाजा लगाना बेहद आसान है।
यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं कि राजनीतिक दलों के लिए काम करने वाले ‘‘चुनाव रणनीतिकार’’ के लिए भी इस प्रकार के हथकंडे भी अनिवार्य अंग बन गए हैं। यह अलग बात है कि वे इसे स्वीकारते नहीं लेकिन यह सही है कि ‘‘नफरत भरे भाषण सभी बड़े राजनीतिक दलों की सोशल मीडिया मुहिम का मुख्य हिस्सा बन गए हैं। कुछ रणनीतियां विशेष नेताओं के लिए बनाई जाती हैं और कुछ पार्टी स्तर पर बनाई जाती हैं।’’ लेकिन सोशल मीडिया पर डाले जाने वाले बयान तो स्वयं नेता नही बल्कि उनके रणनीतिकार ही डालते हैं। चुनाव प्रचार में सनसनी पैदा करने का ठेका लिया ऐसे लोगों भी प्रोफेशनल सीमा को भूल गए हैं।
अक्सर राजनीतिक विश्लेषकों व नेताओं के को यह कहते हुए सुना जाता है कि आज मतदाताओं, विशेषकर युवाओं को मुद्दों की अच्छी जानकारी है और वे रोजगार एवं विकास जैसे असल मुद्दों की अधिक परवाह करते हैं लेकिन सवाल यह है कि आखिर ऐसे बेतुके बयानों पर वे तालियां कैसे पीटते हैं ? तब सार्वजनिक रूप से ऐसे नेताओं का सभस्थलों पर विरोध क्यों नहीं होता है। असभ्य भाषा का समर्थन करने वाले, ऐसे संबोधनों को सुनकर ठहाके लगाने वाले और तालियां पीट कर नेताओं का जोश बढ़ाने वाले मतदाता आखिर किस प्रकार की जागरूकता रखते हैं इससे सहज अंदाजा लगया का सकता है। इज़के बावजूद भारतीय मतदाता लोकतांत्रिक मूल्यों की समझ रखने वाली कहलाती है।
इन भड़काऊ बयानों पर चिंता जाहिर करते हुए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की गई है। कोर्ट ने आयोग को तलब भी किया और उनकी कार्रवाई पर संतोष भी जताया लेकिन समाज को बांटने वाले बयान आपराधिक श्रेणी के हैं। अब कोर्ट का क्या रूख रहता है इस पर देश की नजर है।