गुरुग्राम: आचार्य पुरोहित संघ के अध्यक्ष पं. अमरचंद भारद्वाज ने पितृ पक्ष के महत्व को बताते हुए कहा कि पितरों के लिए श्रद्धा से किए गए मुक्ति कर्म को श्राद्ध कहते हैं। गतात्मा को तृप्त करने की क्रिया और देवताओं, ऋषि, मुनि अथवा पितरों हो तंदुल या तिल मिश्रित जल अर्पित करने की क्रिया को तर्पण कहते हैं। तर्पण करना ही पिंडदान करना है। श्राद्ध पक्ष का महत्व उत्तर व उत्तर पूर्व भारत में ज्यादा है। तमिलनाडु में आदि अमावसाई, केरल में कर कड़ा बाबू बली और महाराष्ट्र में इसे पित्र पदरवडा नाम से जानते हैं।
पं. अमरचंद ने कहा कि पितृ पक्ष में पितरों के निधन की तिथि को ही उनका श्राद्ध किया जाता है। सर्वपितृ अमावस्या को कुल के उन लोगों का श्राद्ध किया जाता है जिन्हें हम नहीं जानते हैं इसके अलावा अमावस्या और पूर्णिमा के दिन पितरों को याद किया जाता है। पुराणों के अनुसार जब भी किसी मनुष्य का निधन होता है तो आत्मा शरीर को त्यागकर यात्रा प्रारंभ करती है, इस यात्रा के दौरान उसे तीन प्रकार के मार्ग मिलते हैं। उस आत्मा को किस मार्ग को चलाया जाएगा यह केवल उनके कर्मों पर निर्भर करता है। यह तीन मार्ग हैं अर्चि मार्ग, धूम मार्ग और उत्पत्ति-विनाश मार्ग। जब कोई अपना शरीर छोड़कर चला जाता है तो उसके सारे क्रिया कर्म करना जरुरी होता है क्योंकि ये क्रिया कर्म ही उक्त आत्मा को आत्मिक बल देते हैं और वह इससे संतुष्ट होती है।
प्रत्येक आत्मा को भोजन, पानी और मन की शांति की जरुरत होती है और इसकी पूर्ति उसके परिजन ही कर सकते हैं। किसी के मरने के बाद उसका अंतिम संस्कार करना जरुरी होता है, लेकिन देखा गया है कि ज्यादातर लोग दाह संस्कार करके की छोड़ देते हैं। निश्चय ही यह क्रिया सही वैदिक तरीके से संपन्न होनी चाहिए। यदि कोई ऐसा नहीं करता है तो आत्मा की मुक्ति की कामना करना व्यर्थ है। इस क्रिया के बाद तीसरा, दसवां, तेरहवां और फिर अठारहवां कर्म वैदिक विधि-विधान से करना चाहिए। इसके बाद सवा महीने का कर्म।
उन्होंने बताया कि अंत में जब किसी मृत आत्मा को श्राद्ध में लिया जाता है तब फिर श्राद्ध कर्म करना जरुरी होता है। मृत्यु लोक में किया हुआ श्राद्ध उन्हीं मानव पितरों को तृप्त करता है जो पितृलोक की यात्रा पर हैं। वे तृप्त होकर श्राद्धकर्ता के पूर्वजों को जहां कहीं भी उनकी स्थिति हो, जाकर तृप्त करते हैं। इस प्रकार अपने पितरों के पास श्राद्ध में दी हुई वस्तु पहुंचती है। और वे श्राद्ध ग्रहण करने वाले नित्य पितर ही श्राद्धकर्ताओं को श्रेष्ठ वरदान देते हैं।
अन्न से शरीर तृप्त होता है। अग्नि को दान किए गए अन्न से सूक्ष्म शरीर (आत्मा का शरीर) और मन तृप्त होता है। इसी अग्निहोत्र से आकाश मंडल के समस्त पक्षी भी तृप्त होते हैं।
उनके अनुसार तर्पण, पिंडदान और धूप देने से आत्मा की तृप्ति होती है। तृप्त आत्माएं ही प्रेत नहीं बनती। ये क्रिया कर्म ही आत्मा को पितृ लोक तक पहुंचाने की ताकत देते हैं और वहां पहुंचकर आत्मा दूसरे जन्म की प्रक्रिया में शामिल हो जाती है। जो परिजनों का श्राद्ध कर्म नहीं करते उनके परिजन भटकते रहते हैं।