जीवन दायक नौ ग्रह : ग्रहों की उत्पत्ति का गूढ़ रहस्य

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सुभाष चन्द्र चौधरी

आम तौर पर यह देखा जाता है कि शारीरिक या सांसारिक लाभ के लिए नौ रत्नों को धारण करने वाले सज्जन रत्न धारण करने से पूर्व इसकी आवश्यकता या फिर लाभ हानि को ठीक प्रकार से नहीं समझते हैं। जल्दबाजी में गम्भीर गलतियां भी कर जाते हैं। इससे रत्नों का प्रभाव हितकारक होने के बदले हानिकारक हो जाता है। कई धर्मग्रंथों का गहन अध्ययन करने के बाद मैं इस निर्णय पर पहुंचा हूं कि हम मानव मात्र के लिए यह जानना बेहद जरूरी है कि नौ ग्रहों के अनुकूल फलादेश के लिए रत्न धारण करना क्यों जरूरी है ? ग्रहों का रत्नों से क्या संबंध है, साथ ही इसकी उत्पत्ति कब हुई?

क्षिति जल पावक गगन समीरा
पंचतत्व रचित यह अधम शरीरा।।

सर्व विदित इस श्लोक से हम सभी परिचित हैं कि इस संसार की सृष्टि के आरंभ में ही भगवान भोले नाथ ने ब्रह्मा को सांसर की रचना के लिए जो तत्व दिए उनमें प्रमुख पांच तत्व- अग्रि, जल, आकाश, पृथ्वी व वायु हैं जिसके माध्यम से सम्पूर्ण संसार का संचालन भी होता है। इन्हीं पांच तत्वों पर चर व अचर, सभी जीव निर्भर करते हैं। सच कहूं तो ये ही वो परम तत्व हैं जिनके माध्यम से विष्णु जी भी इस संसार का पालन पोषण करते हैं।

हमारे महान हिन्दु धर्मग्रंथों में से प्रमुख गं्रथ सूर्य सिद्धांत बताते हैं कि जिस प्रकार जीवन में इन पांच तत्वों की महती भूमिका है ठीक उसी प्रकार संसार की सृष्टि के साथ ही आए नौ ग्रहों सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, वृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु व केतु की भी भूमिका निर्धारित है। जहां तक नौ ग्रहों की उत्पत्ति का प्रश्र है इसका स्पष्टिकरण अथर्ववेद संहिता भाग एक में उधृत दीर्घायू सूक्त से होता है। सृष्टि की रचना के समय भी ब्रह्मा जी के समक्ष विभिन्न प्रकार की समस्याएं आती थीं। उसके निवारण के लिए नव ग्रहों की शांति हेतु चारों वेदों में प्रयुक्त प्रार्थना रूपी जिन श्लोकों का वर्णन किया गया है वह दर्शाते हैं कि हम सभी मनुष्यों की आयु नौ प्राण व नौ चक्रों पर आधारित होती है जो नौ दिव्य धाराओं के साथ संयुक्त होते हैं। ये वही धाराएं हैं जो उन सभी नौ ग्रहों से प्रवाहित होती हैं। आप सभी प्रेमी जनों के शंका निवारण के लिए कुछ प्रमुख श्लोक को यहां उद्यृत करना आवश्यक समझता हूं जिससे यह स्पष्ट होता है कि ग्रहों का जन्म भी सृष्टि की रचना के साथ-साथ हुआ है। क्योंकि वेदों में दीर्घायु प्राप्ति सूक्त, वणिज्य सूक्त, समृद्धि प्राप्ति सूक्त, शत्रु निवारक सूक्त, बल बुद्धि दायक सूक्त, रोग नाशक सूक्त का उल्लेख आया है जो हमारे सुखी जीवन के लिए इन ग्रहों की शांति के उपाय करने की आवश्यकता को पुष्ट करता है। साथ ही अग्रि पुराण में सभी नौ ग्रहों की शांति की व्याख्या की गई है। इनमें सूर्य अष्टोत्तर, चन्द्र अष्टोत्तर, गुरु अष्टोत्तर, अंगार अष्टोत्तर, बुध अष्टोत्तर, शनि अष्टोत्तर, शुक्र अष्टोत्तर, राहु अष्टोत्तर एवं केतु अष्टोत्तर शत नामावलि: विस्तार से इन ग्रहों की प्रकृति के साथ ही उत्पत्ति होने की पुष्टि करती है व इसके जीवन पर पडऩे वाले प्रभाव से बचने के लिए उपाय करने का संकेत भी हमें देती हैं।

श्लोक : अथर्ववेद संहिता भाग – 1
1. नव प्राणन्नवभि: सं मिमीत दीर्घायुत्वाय शतशारदाय।
हरितं त्रीणि रजते त्रीण्ययसि त्रीणि तपसाविष्ठितानि।। 1 ।।

अर्थ : सौ वर्ष की पूर्ण आयु के लिए नौ प्राणों को शरीरस्थ नौ चक्रों या नौ दिव्य धाराओं के साथ संयुक्त करते हैं। इनमें से तीन हरित, तीन रजत, के तथा तीन आय्स हैं। वे तप के द्वारा भली प्रकार स्थित होते हैं।

2. अग्रि: सूर्यश्चन्द्रमा भूमिरायो धौरन्रिक्षं प्रतिशो दिशश्यु।
आर्तवा ऋतुभि: संविदाना अनेन मा त्रिवृता पाययन्तु।। 2 ।।

अग्रि सूर्य चन्द्रमा, पृथ्वी, जल, अन्तरिक्ष धुलोक, दिशा, उपदिशा तथा ऋतु, त्रुतु विभाग (यह नौ हैं) सभी हमें त्रिवृत्त के संयोग से पार लगा दें तथा अपने लक्ष्य तक पहुंचा दें।

ऐसे अनेक दृष्टांत वेदों में वर्णित हैं जो हमारी जानकारी को समृद्ध करते हैं कि ग्रहों की उत्पत्ति भी पांच तत्वों से ही हुई है और इनकी भूमिका भी प्रकृति के मालिक भगवान महादेव ने निर्धारित कर दी है। इस तथ्य की पुष्टि श्रीमद् भागवत गीता से भी होती है जिसमें 16 कलाओं के अवतार भगवान श्रीकृष्ण ने अपने श्रीमुख से अर्जुन को बताया है कि जिन पांच तत्वों से संसार व प्राणी बने हैं उसके श्रोत स्वयं परम आराध्य देवाधिदेव भागवान शंकर हैं और सभी ग्रह भी इन्हीं पांच तत्वों से बने हैं। इनमें उनकी ही शक्तियां व्याप्त हैं।

वृहत पाराशर सूत्र कहते हैं कि देवता पंच तत्वों से युक्त इन्हीं ग्रहों के द्वारा प्रकृति की रचना व स्थापना की जिम्मेदारी निभाते हैं। संसार में ज्योतिष विज्ञान की सबसे पहली और प्रामाणिक ग्रंथ सूर्य सिद्धांत बताता है कि राशियां 12 होती हैं। नौ ग्रहों का इन्हीं 12 राशियों पर घड़ी के अनुसार चक्र घूमता है। अलग-अलग ग्रह की दशा व दिशा का अलग-अलग राशियों पर भिन्न – भिन्न प्रभाव पड़ता है जिसकी व्याख्या ज्योतिष के आचार्य गणना कर करते हैं और नौ रत्नों के माध्यम से इसके उपाय भी बताते हैं। हमें इन बातों का ध्यान अवश्य रखना चाहिए कि सूर्य सिद्धांत में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि सभी ग्रहों में अन्योन्याश्रित संबंध हैं।

ये सभी श्ुाभाशुभ फल के लिए उत्तरदायी हैं। वस्तुत: न ग्रहों का युद्ध होता है और न ग्रह परस्पर युक्त होते हैं। ग्रहों की दिशा व स्थिति में बदलाव से ही उसके प्रभाव में बदलाव दिखाई देता है। नौ ग्रहों का प्राकृतिक संबंध नौ रत्नों से है। क्योंकि यह सृजन की देवी माता पृथ्वी के गर्भ से उत्पन्न एवं उन्हीं से प्राप्त अनंत शक्तियों से युक्त होते हैं। इसिलए नौ रत्नों का भी देवी शक्ति के रूप में ही सम्मान करना चाहिए ऐसा धर्मग्रंथ एवं श्रृषि मुनियों ने बारंबार अपनी रचनाओं में उल्लेख किया है। अन्यथा इसके कुप्रभाव से मनुष्य दुखमय जीवन प्राप्त करते हैं।

रत्नों का रहस्यमय संसार

संसारिक व आध्यात्मिक सफलता का राज

वेद के छठे अंग ज्योतिषशास्त्र में ग्रहों के प्ररिभ्रमण और इस प्रक्रिया में मानव शरीर पर पडऩे वाले दुष्प्रभावों को देखते हुए रत्न धारण करने का विधान निर्धारित किया गया है।

लाखों करोड़ों वर्ष बाद भी हमारे लिए यह कौतूहल का विषय है कि रत्न क्या है? इसकी उत्पत्ति कब और कहां हुई? इसकी पहचान क्या है? ये कहां पाए जाते हैं? , रत्न धारण करने से मनुष्य को क्या लाभ मिलता है? एवं संसारिक एवं आध्यात्मिक सफलता में हमारे लिए यह किस प्रकार सहायक है? क्या देवी देवता भी इसे धारण करते रहे हैं ? इसमें कोई दो राय नहीं कि जब तक ये जरूरी जानकारियां हमें प्रमाण के साथ नहीं मिलेंगी तब तक रत्न में हमारा श्रद्धा व विश्वास पुख्ता नहीं हो सकता है। और जब विश्वास मजबूत होता है तभी ये रत्न हमारे लिए फलदायी होते हैं। इन शंकाओं का समाधान करने की कोशिश में मैंने ज्योतिष की दुनिया के महान ग्रंथों, वेदों, उपनिषदों, एवं अन्य अप्राप्य श्रोतों का गहन अध्ययन किया। लंबे शोध के बाद हम इस निष्कर्स पर पहुंचे कि पाठकों के लाभ के लिए उन श्रोतों का उल्लेख करते हुए इसे समझाने की कोशिश की जाए।

अध्ययन से यह स्थापित हो गया है कि तीनों लोकों में पाए जाने वाले सभी वस्तुओं में से सर्वश्रेष्ठ वस्तु को रत्न कहा गया है। विश्व प्रसिद्ध विक्रमशिला विश्वविद्यालय स्थापित करने वाले एवं न्याय प्रिय राजा विक्रमादित्य की अदालत के सुप्रसिद्ध विदुषक (महान विद्वान) नवरत्नों में से एक प्रमुख विद्वान लेखक अमर सिंहा द्वारा संस्कृत में लिखित महानग्रंथ अमरकोषा: में कहा गया है कि च्च् रत्नस्वजातिश्रेष्ठेअपि ज्ज् अर्थात, स्व जाति में सर्वश्रेष्ठ वस्तु को रत्न कहा जाता है। आगे वे कहते हैं कि :

रमणीयतरे यस्मिन रमन्ते सर्वमानवा: ।
जत्युत्कृष्टतरं यस्मात् तस्मात्रत्नमिति स्मृतम्।।

जिस उत्कृष्ट वस्तु को देखने मात्र से सभी मनुष्यों का मन प्रफुल्लित हो जाता है एवं जो अपनी जाति में श्रेष्ठतम होता है उसे ही रत्न कहा जाता है।

इसकी उत्पत्ति कब और कहां हुई इसका परिचय हमारे प्राचीनतम महान ग्रंथ वेद में बड़े ही स्पष्ट तरीके से मिलता है। ऋग्वेद के प्रथम खण्ड का पहला श्लोक ही हमें रत्न शब्द से परिचय कराता है जबकि 15 वें व 20 वें श्लोक से रत्नों के महत्व व उसके प्रकार की जानकारी मिलती है। ऋग्वेद की अनेक ऋचाओं में रत्न शब्द का प्रयोग आया है। इसकी प्रथम ऋचा में ही अग्रि को रत्न घात्वम् कहा गया है। इसके श्लोक
अग्रीमीले पुरोहित यवस्य देव मुत्विजम् होतारं रत्न घात्वम् । से इसकी पुष्टि होती है।

ऋभुदेव ने अपने यज्ञ की सफलता, विद्या, बुद्धि, बल व धन आदि के लिए अग्रिदेव एवं देवताओं के राजा इन्द्रदेव का आह्वान करते हुए जो प्रार्थना की है उसमें रत्न शब्द का उपयोग कई बार किया है।

ऊं अग्रिमीले पुरोहितं यज्ञस्य देव मृत्विजम्।
होतारं रत्न धातमम्।। 1।। प्रथम सूक्त, अध्याय एक, ऋग्वेद

अर्थ : हम अग्रि देव की स्तुति करते हैं। जो यज्ञ के पुरोहित देवता, ऋतिज्व, होता, और याजकों को रत्नों से विभूषित करने वाले हैं। । 1 ।।

 

149. अभि यज्ञं गृणीहि नो ग्रावे नेष्ट: पिब ऋतुना।
त्वं हि रत्नधा असि ।। 3।। सूक्त 15 अध्याय एक, ऋग्वेद

अर्थ : हे त्वष्टादेव! आप पत्नी सहित हमारे यज्ञ की प्रशंसा करें, ऋतु के अनुकूल सोमरस का पान करें। आप निश्चय ही रत्नों को देने वाले हैं।। 3।।

 

201. ते नो रत्नानि धत्तन त्रिरा साप्तानि सुन्वते।
एकमेकं सुशसिभि: ।। 7।। सूक्त 20, अध्याय एक ऋग्वेद

अर्थ : वे उत्तम स्तुतियों से प्रशंसित होने वाले ऋभुदेव! सोमयाग करने वाले प्रत्येक याजक को तीनों कोटि के सप्त रत्नों अर्थात इक्कीस पकार के (विशिष्ठ यज्ञ कर्मों) को प्रदान करें।

वेदों के इन श्लोकों से स्पष्ट है कि सृष्टि की रचना के लिए देवाधिदेव भगवान शिव ने जिन तत्वों को इस भूलोक को सौंपा उनमें से रत्न भी शामिल थे। हालांकि रत्नों की उत्पत्ति को लेकर कई प्रकार की कथाएं प्रचलित हैं लेकिन हमारा मानना है कि सृष्टि रचना से पूर्व ही रत्न आए। इसकी पुष्टि भगवान विष्णु का वर्णन करते हुए इस श्लोक से होती है :

सशंख चक्रम सकृति कुण्डलम्, सपीत वस्त्रम् सरसि रुणेक्षणम्।
सहर वक्षस्थलम् कौष्टिभुश्रियम्, नमामि विष्णुम श्रृष चतुर्भुजम्।।

अतएव, भगवान विष्णु श्रृष्टि के पालनहार हैं जिनकी उत्पत्ति कौष्टभ मणि धारण के साथ हुई थी। वर्णन यह आया है कि स्वर्ग में चार प्रमुख रत्न रखे गए हैं जिनमें एक कौष्टभ मणि (भविष्य, आरम तलब जिंदगी के लिए ), दूसरा चिन्ता मणि (सभी तरह की चिंताओं से मुक्ति के लिए), तीसरा श्यामन्तक मणि ( भगवान सूर्य का गहना है, भगवान कृष्ण ने धारण किया था) और चौथा रूद्र मणि (भगवान शिव का प्रिय) है। कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं कि देवताओं ने भी सृष्टि की रचना करने व उसके सफल संचालन के लिए या यूं कहें कि भगवान शंकर द्वारा दी गई जिम्मेदारियों के सफल निर्वहन के लिए रत्नों को धारण किया।

मानव जीवन उतार चढ़ाव और घात प्रतिघात की स्थ्तििायों से गुजरता रहता है। सुख व दुख दोनों ही भाव मनुष्य के जीवन पर असर डालते हैं। इसकी उत्पत्ति बाह्य व आंतरिक जगत की संवेदनाओं से होती है। इसलिए हम सबका जीवन उन्नति-अवनति, सुख-दु:ख, विकास-ह््रास, हर्ष-विषाद जैसे तत्वों से गुजरता है। ये स्थितियां सात ग्रह एवं 12 राशियों की स्थिति के अनुसार बनती और बिगड़तीं हैं।

इसके अनिष्टकारी प्रभाव को दूर करने के उपायों के रूप में ही ज्योतिष शास्त्र ने रत्न पहनने की खोज की। ज्योतिष शास्त्र की यह खोज वैज्ञानिकता पर आधारित है। सभी जानते हैं कि सौरमण्डलीय किरणों का प्रभाव पत्थरों के रूप रंग आकार-प्रकार, पृथ्वी, जल, हवा व आकाश आदि पर पड़ता है। यदि एक समान गुण वाली रश्मियों के ग्रहों से पीडि़त व्यक्ति को वैसी ही रश्मियों के वातावरण में उत्पन्न रत्न पहनाया जाए तो वह वांछित फल देता है। और अगर विपरीत स्वभाव वाले रत्न पहनाए जाएं तो वह उसके लिए अहितकारी होता है। इस प्रकार रत्न हमारे जीवन के लिए वैज्ञानिक रूप से अत्यंत ही लाभकारी होते हैं। अनेकानेक रोगों के लक्षण, आभास व निदान ज्योतिष शास्त्र के अनुसार रत्न धारण के माध्यम से ही बताए गए हैं।

क्योंकि 27 नक्षत्रों का मानव शरीर के सभी अंगों से अत्यंत गहरा संबंध है। इसलिए वेद के छठे अंग ज्योतिषशास्त्र में ग्रहों के प्ररिभ्रमण और इस प्रक्रिया में मानव शरीर पर पडऩे वाले दुष्प्रभावों को देखते हुए रत्न धारण करने का विधान निर्धारित किया गया है। श्रृषि मुनियों का अनुभव कहता है कि उचित रत्नों को विधिवत धारण करके अनके प्रकार के रोग दूर किए जा सकते हैं।

अमरकोष में माता धरती के दर्जनों नाम बताए गए हैं। इसे वसुमती, भूमि, वसुधा और रत्नगर्भा भी कहा गया है। इससे सिद्ध होता है कि पृथ्वी अपने गर्भ में दुनिया के अमूल्य धरोहर रत्नों की भी जननी है। प्रकृति के गर्भ में लाखों वर्षों तक पड़े रहने के कारण इनमें पृथ्वी का चुम्बकत्व तथा तेजत्व समाहित हो जाता है। धरती के जिस क्षेत्र में जिस ग्रह का असर अधिक होता है उसके आसपास उस ग्रह से संबंधित रत्न अधिक मात्रा में पाए जाते हैं। वास्तव में पृथ्वी ग्रहों के संयोग से अपने अंदर रत्नों का निर्माण करती है, इसलिए शास्त्र के ज्ञाता इसे रत्नग भी कहते हैं।

वैसे तो कई प्रकार के रत्नों में दिव्य रत्न देवताओं की तपस्या करने से, वानस्पतिक रत्न पौधे एवं वनस्पितयों से प्राप्त होते हैं लेकिन प्राकृतिक रत्नों में हीरा, पन्ना, गोमेद भूमि की खदानों से प्राप्त होते हैं जबकि नीलम व पुखराज हिमालय पर्वत की खदानों से निकाला जाता है। लहसुनिया व माणिक जैसे रत्न नदियों या उसके किनारे के खेतों में पाए जाते हैं जबकि मंूगा व मोती समुद्र से निकाले जाते हैं। इन सभी रत्नों के उपरत्न भी इन्हीं विविध श्रोतों से निकाले जाते हैं। इसलिए ही इन्हें पाषाण रत्न, प्राणिज रत्न और वानस्पतिक रत्न कहा जाता है।

ज्योतिष की दुनिया के प्रकांड आचार्य वाराहमिहिर के अनुसार बलि दैत्य और महर्षि दधीचि की हड्डियों से रत्नों की उत्पत्ति हुई है। दैत्य की अस्थियां जहां गिरीं उस प्रदेश में हीरे उत्पन्न हुए जबकि उनके दांतों की पंक्तियां मोती के रूप में परिवर्तित हो गईं। कहा गया है कि उसके मित्रों को लेकर नागराज वासुकि आकाश मार्ग से जा रहे थे तब उन पर गरुड़ ने हमला बोल दिया। इस संघर्ष में नागराज के मुंह से जो छिटक कर गिरा वह पन्ना में तब्दील हो गया। समुद्र के तटों पर असुरों के नयन गिरे जो नीलम बन गए। उसकी मृत्यु के समय घनघोर गर्जना से कई रंगों के वैदूर्य उत्पन्न हुए जबकि चर्म एवं अंतडिय़ों से मूंगा की उत्पत्ति हुई।

प्राकृतिक रत्न हमेशा चट्टानों की आकृति में मिलते हैं। ये धरती की पांचवीं या सातवीं परत से बनते हैं। हजारों वर्षों से उत्पन्न होने वाली प्राकृतिक गर्मी, क्रिया प्रतिक्रिया के कारण पृथ्वी के अंदर पड़े ये पत्थर अलग-अलग रंगों में बदल जाते हैं। जब कभी ज्वालामुखी फटते हैं तो चट्टानों का पिघला लावा रत्न की शक्ल धारण कर लेता है। जब इसे खान से निकाला जाता है तब ये साधारण चमकीले बेडौल पत्थर के रूप में दिखते हंै। इसे अनुभवी लोग ही पहचान पाते हैं। इसे कारीगर, मशीनों पर तराशते हैं, तब जाकर इनकी क्वालिटी व चमक का अंदाजा लगाया जाता है।

रत्नों के सबसे महत्वपूर्ण गुण हैं उनसे निकलने वाले प्रकाश। अगर रत्न चमकदार व आभामय नहीं होते हैं तो इसके गुण नगण्य माने जाते हैं।

सामान्य तौर पर ग्रहों – नक्षत्रों को ध्यान में रखते हुए ज्योतिषियों ने केवल नव रत्नों को ही लिया है। इन रत्नों के नहीं मिलने पर ही इनके उपरत्नों का प्रयोग करने की सलाह दी जाती है। हमारे देश में कुल 84 रत्न पाए जाते हैं जिनमें माणिक्य, हीरा, मोती, नीलम, पन्ना, मूंगा, गोमेद एवं लहसुनिया नव रत्न कहे जाते हैं। ये नव रत्न ही अलग-अलग गुणों को लेकर पूरे सौरमण्डल का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसलिए ही इन बहुमुल्य नव रत्नों के विधि पूर्वक धारण करने से मनुष्य को शीघ्र ही शुभ फल की प्राप्ति होती है।

(अगले अंक में पढ़ें मानव जीवन में ग्रह एवं रत्न )

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