नई दिल्ली : देश में चुनाव में मुफ्त की योजनाओं की घोषणा पर सुप्रीम कोर्ट ने आज अहम आदेश दिया. सर्वोच्च अदालत ने 2013 में इसी मसले पर आए एक फैसले की समीक्षा की मांग मान ली. पिछले कुछ समय से देश में रेवड़ी कल्चर को बढ़ावा देने को लेकर छिड़ी बहस की दृष्टि से यह बेहद अहम हो सकता है. दक्षिण के राज्यों में विधानसभा चुनाव के दौरान अक्सर वोटर को लालच देकर लुभाने कि कोशिश होती रही है. अब अरविन्द केजरीवाल की आम आदमी पार्टी की ओर से चुनावों में की जाने वाली घोषणाओं को लेकर भी बह्स छिड़ी हुई है. इस पर देश के प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी प्रतिक्रिया जाहिर की थी. इस सम्बन्ध में सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर इस पर रोक लगाने कि मांग की गई है. अब अगर कोर्ट ‘एस सुब्रमण्यम बालाजी बनाम तमिलनाडु सरकार’ मामले में आए फैसले को पलट देता है, तो राजनीतिक पार्टियों के लिए चुनाव में मुफ्त की घोषणाएं करना काफी कठिन हो जाएगा.
दरअसल बीजेपी नेता और वकील अश्विनी उपाध्याय समेत कई याचिकाकर्ताओं ने मुफ्त की चीजें बांटने का वादा करने वाली पार्टियों की मान्यता रद्द करने की मांग की है. उनकी याचिका में कहा गया है कि इस तरह की घोषणाएं एक तरह से मतदाता को रिश्वत देने जैसा है. यह न सिर्फ चुनाव में प्रत्याशियों को असमान स्थिति में खड़ा कर देती हैं, बल्कि चुनाव के बाद सरकारी ख़ज़ाने पर भी अनावश्यक बोझ पड़ता हैं जो टैक्स दाता जनता के साथ अन्याय है . इस याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने 25 जनवरी को केंद्र सरकार सहित सभी पक्षों को नोटिस जारी किया था.
सुनवाई के दौरान चीफ जस्टिस एन वी रमना की अध्यक्षता वाली बेंच ने इस मसले पर विशेषज्ञ कमिटी बनाने की मंशा जताई थी. कोर्ट ने यह सुझाव भी दिया था कि सरकार को सर्वदलीय बैठक बुला कर मसले का हल निकालना चाहिए. लेकिन कोर्ट ने आज कहा कि सबसे पहले 2013 में आए फैसले की समीक्षा ज़रूरी है. इस मसले पर 2 हफ्ते बाद 3 जजों की विशेष बेंच सुनवाई करेगी.
आपको बता दें 2013 का एस सुब्रमण्यम बालाजी फैसला 2 जजों की बेंच का था. इसमें कहा गया था कि राजनीतिक पार्टियों की तरफ से चुनाव घोषणपत्र में की जाने वाली जनकल्याण की घोषणाएं संविधान के नीति निदेशक तत्वों के मुताबिक हैं. उस फैसले में यह भी कहा गया था कि चुनाव में भ्रष्ट आचरण के लिए लागू होने वाली जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 123 भी सिर्फ प्रत्याशी पर लागू होती है, पार्टी पर नहीं.