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भारत रत्न मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के जन्म दिवस पर विशेष
बड़ी मुद्दत में साक़ी भेजता है ऐसा मस्ताना, बदल देता है जो बिगड़ा हुआ दस्तूर-ए-मयखाना
यूनुस अलवी
मेवात: मौलाना अबुल कलाम आज़ाद का नाम जुबान पर आते ही शिक्षित हिंदुस्तान का उनका सपना याद आने लगता है मौलाना आज़ाद एक ऐसी शख्सियत थे जिन्होंने आज़ाद हिंदुस्तान मे लगातार 11 साल तक बतौर शिक्षा मंत्री देश को अपनी खिदमात मुहय्या करायी। मेवातियों के लिये बडे फखर की बात है कि मौलाना अबुल कलाम आज़ाद देश का पहला चुनाव गुडगांव लोकसभा क्षेत्र से लडे और वे देश के शिक्षा मंत्री बने लेकिन मेवातियों की बदकिस्मती रही कि आज देश में कोई समाज शिक्षा के क्षेत्र में पिछडा है तो वह है मेवाती। मौलाना अबुल कलाम आज़ाद एक ऐसा हिंदुस्तान बनाना चाहते थे जहां मज़बूत ढांचे के साथ साथ कमज़ोर वर्ग के लोगों को भी पूरी सुरक्षा मिले, देश का युवा शिक्षित हो, औरतें हिंसा, शोषण रहित सामाजिक और आर्थिक हालात के साथ बाइज्ज़त अपनी जि़न्दगी गुजार सकें।
मौलाना अबुल कलाम आज़ाद का आबाई (पैत्रिक) वतन दिल्ली (भारत) और मादर-ए-वतन मदीना मुनव्वरा (सऊदी अरबिया) था. मौलाना अबुल कलाम आज़ाद का जन्म 11 नवम्बर 1888 को मक्का मुआज्ज़मा (सऊदी अरबिया) मे हुवा आपके पिता जी का नाम खैरुद्दीन था आप पांच भाई बहनों मे सबसे छोटे थे और आपका नाम महिउद्दीन अहमद रखा गया और तारीखी नाम फिऱोज़ बख्त रखा गया आज़ाद आपका तखल्लुस था।
1898 मे आपके वालिद मौलाना खैरुद्दीन सऊदी अरब छोड़ कर कलकत्ता चले आये और यहाँ पहुंचकर ही मौलाना की वालिदा (माता जी) का देहांत हो गया घर मे मज़हबी माहोल होने की वजह से मौलाना आज़ाद ने कुरान शरीफ़ को मक्का ही मे हिफ्ज़ (कंठस्थ) कर लिटा था घरेलु माहोल मज़हबी होने की वजह से मौलाना आज़ाद वक््त से पहले ही एक संजीदा शख्सियत बन गए और किताबें उनके लिए खिलौना बन गई। 13 जुलाई 1912 को मौलाना आज़ाद ने अपना एक अख़बार (हिलाल) प्रकाशित किया और इसमे पुराने तौर तरीकों से हट कर एक नयी सहाफत ( पत्रकारिता ) को जन्म दिया पत्रिका अल हिलाल बेहद लोकप्रिय हो गई और दो वर्षों में ही इसका वितरण 30,000 तक पहँच गया। लेकिन 1914 में एक घटना घटी जब ब्रिटिश सरकार ने भारत की रक्षा अधिनियम के तहत प्रैस को जब्त कर लिया और पत्रिका पर प्रतिबंध लगा दिया। आजाद को गिरफ़्तार करके रांची कारागार में भेज दिया गया जहां उन्हें बेहद कठिनाइयों का सामना करना पड़ा।
जैल में एक रात जब जेलर अचानक निरिक्षण करने उस काल कोठरी की तरफ गया जिसमे मौलाना आज़ाद और उसके कुछ और हिंदु साथी बंद थे तो देखा की बाक़ी सब सो रहे हैं और मौलाना आज़ाद बैठे बैठे ख्यालों मे खोये हैं तो जेलर ने मौलाना आज़ाद से पूछा की बाक़ी सब सो रहे हैं और आप अकेले जागे हुवे हैं ऐसा क्यों ? तो मौलाना आज़ाद ने जवाब दिया की इनकी कौम जागी हुई है इसलिए ये सो रहे हैं और मेरी कौम सोई हुई है इसलिए मे जाग रहा हूँ।
अफ़सोस आज भी मुस्लमान सोया हुवा है तालीम से कोसो दूर अपनी बदहाली का ठीकरा हुकूमत पर भोड़ कर खामोश पड़ा हुवा है इनके वोटो का सौदा चंद मज़हब के ठेकेदार या सियासत के रहनुमा अपने अपने फायदे के लिए करते रहते हैं लेकिन अब मुस्लिम युवाओं मे एक जागृति देखी जा रही है मुस्लिम युवाओं का खास तौर पर लड़कियों का रुझान तालीम की तरफ बढता जा रहा है जो की एक अच्छा संदेश है।
जेल से रिहा होने के बाद मौलाना आज़ाद ने फिर से पत्रकारिता का काम शुरु कर दिया और हिलाल के बंद होने की वजह से अल बलाग नाम से एक अख़बार निकलना शुरू कर दिया नेहरू जी लिखते हैं कि मौलाना आज़ाद नई भाषा में लिखते हैं, यह न सिर्फ विचारों और दृष्टिकोण में ही एक नई भाषा है बल्कि इसकी शैली भी भिन्न थी, फारसी पृष्ठभूमि होने के कारण कभी-कभी आजाद की शैली और विचारों को समझना थोड़ा मुश्किल था। उन्होंने नये विचारों के लिए नए मुहावरों का प्रयोग किया और निश्चित रूप से आज की उर्दू जुबान को नया आकार देने में उनका बहुत बड़ा हाथ रहा है। पुराने रूढिवादी मुसलमानों ने इसके लिए उनके पक्ष में प्रतिक्रिया जाहिर नहीं की और आजाद की राय एवं दृष्टिकोण की आलोचना की। मौलाना मध्यकालीन दर्शन, अठारहवीं सदी के बुद्धिवाद और आधुनिक दृष्टिकोण का एक अजब मिश्रण थे। पुरानी पीढी में से शिल्बी और अलीगढ विश्वविद्यालय के सर सैय्यद जैसे कुछ लोगों ने आजाद के लेखन को मान्यता दी अफ़सोस की 1916 में मौलाना की फिऱ से गिरफ़्तारी के बाद अलबलाग भी बंद हो गया । वह चार वर्षों तक कारावास में रहे।
इसके बाद वह एक नामचीन नेता के रूप में बाहर आए उन्हें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में सम्मान के साथ शामिल किया गया। 1920 में उनके जीवन में उस समय एक नया मोड़ आया जब उन्होंने तिलक और गांधीजी से मुलाकात की। गांधीजी ने दारुल उलूम देवबंद इस्लामिक विश्व विद्यालय और फिरंगी महल से खिलाफत आंदोलन का शुभारंभ किया था जहां गांधी और आजाद दोनों ही निरंतर आते-जाते रहते थे। लेकिन जब मुस्लिम लीग ने गांधीजी के सत्याग्रह की निंदा की तो लीग में युवा के तौर पर अपने को नामांकित कराने वाले आजाद ने हमेशा के लिए मुस्लिम लीग को छोड़ दिया। उनकी लोकप्रियता इतनी अधिक थी कि 35 वर्ष की आयु में वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अब तक के सबसे युवा अध्यक्ष बन गये। 1942 में, भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान उन्हें कांग्रेस के मुख्य प्रवक्ता के तौर पर चुना गया। 1946 में शिमला में, मंत्रिमंडल अभियान के साथ बातचीत के दौरान भी उन्हें यह उपलब्धि मिली।
अक्टूबर, 1947 में जब हजारों की तादाद में मुसलमान पाकिस्तान जा रहे थे तो मौलाना आज़ाद ने दिल्ली की जामा मस्जिद मे एक तकऱीर की और देश के सच्चे हितेषी व कौम के हमदर्द के तौर पर बोले, जामा मस्जिद की ऊंची मीनारें तुमसे पूछ रही है कि कहाँ जा रहे हो, तुमने इतिहास के पन्नों को कहाँ खो दिया। कल तक तुम यमुना नदी के किनारों पर वज़ू किया करते थे और आज तुम यहां रहने से डर रहे हो। याद रखो कि तुम्हारे खून में दिल्ली बसी है। तुम वक्त के इस झटके से डर रहे हो। वे तुम्हारे आबा-ओ-अजदाद ही थे जिन्होंने गहरे समुद्र में छलांग लगाई, मजबूत चट्टानों को काट डाला, मुश्किलों में भी मुस्कराये, आसमान की गडग़डाहट का जवाब तुम्हारी हँसी के वेग से दिया, हवाओं और तूफानों का रूख मोड़ दिया। यह बदकिस्मती है कि जो लोग कल तक बादशाहों की नियति के साथ खेले उन्हें आज अपने ही भाग्य से जूझना पड़ रहा है और इसलिए की तुम इस मामले में अपने मालिक को भी भूल गये हो जैसे कि अल्लाह पाक का कोई वजूद ही न हो। वापस आओ यह तुम्हारा घर है, तुम्हारा देश है। तारीख गवाह है की जिन लोगों ने अपने बिस्तर साजो-सामान हिंदुस्तान छोडऩे के लिए बांधे हुवे थे वो मौलाना आज़ाद की इस तकऱीर को सुनकर रोने लगे और वापस हिंदुस्तान ही मे हमेशा के लिए बसने का फ़ैसला कर लिया .
जो चला गया इसे भूल जा , हिन्द को अपनी जन्नत बना
मौलाना आज़ाद हिंदुस्तान को तक़सीम होता हुवा नहीं देखना चाहते थे वह चाहते थे की सब यहीं रह कर हिंदुस्तान को ही मज़बूत बनाये जैसा की हिन्दू मुस्लिम आपसी भाई चारे के साथ रहते चले आये हैं। मौलाना आज़ाद ने कहा के अगर तकसीम हो गयी तो हिन्दुओं और मुसलमानों के दिल भी तकसीम हो जायेंगे और आपसी रंजिशो मे इज़ाफा हो जायेगा। उन्होंने हिंदुस्तान के मुसलमानों को भी ये समझाने की कोशिश की अगर बटवारे का हादसा पेश आ गया तो 1100 साल से जब हिन्दू और मुस्लिम एक साथ रहते चले आये हैं और जिनका तकऱीबन समाजी ढांचा और कल्चर एक जैसा है तो इसमे भी तबदीली आएगी और दोनों फिऱके ना सिर्फ एक दुसरे के खिलाफ़ हमेशा मशकूक रहेंगे बल्कि एक दुसरे के खून के प्यासे बन जायेंगे। आज़ादी के बाद कुछ असामाजिक तत्वों की वजह से हमने कई बार ऐसा खून खऱाबा देख चुके है
आज भी मुसलमानों को ज़रूरत है एक ऐसे ही कायद ( लीडर ) की जो सोचे तो अपनी कौम का भला सोचे अपने देश को शिक्षित और समान अधिकार की बात सोचे लेकिन आज तो नेता चंद पैसो मे अपना इमान तो क्या अपना मुल्क बेचने को तैयार हैं और ऐसा हम कुछ दिनों से देख भी रहे हैं हिंदुस्तान जो कभी सोने की चिडया कहा जाता था आज कज़ऱ् के बोझ टले दबता जा रहा है गऱीब और गऱीब हो रहा जबकी अमीर और भी अमीर बनता जा रहा है। और आखिर मे इन्ही अल्फाज़ के साथ हम मौलाना आज़ाद को खिराज-ए-अक़ीदत पेश करते हैं