12 ऐसी माँ जिन्होंने स्वयं दुःख सह कर अपने बच्चों को कामयाब बनाया !

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हरियाणा के राज्यपाल ने मदर्स डे के उपलक्ष्य में सम्मानित किया

चण्डीगढ, 14 मई :  हरियाणा के राज्यपाल प्रो. कप्तान सिंह सोलंकी ने विषम परिस्थितियों में अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलवाकर उन्हें कामयाब बनाने वाली 12 माताओं को आज मदर्स डे के उपलक्ष्य में आयोजित समारोह में सम्मानित किया। समारोह का आयोजन डॉ. जी. सी. मिश्रा मैमोरियल एजुकेशन एण्ड चेरिटेबल ट्रस्ट और मानव मंगल स्मार्ट स्कूल द्वारा मानव मंगल स्कूल मोहाली में किया गया।
राज्यपाल ने इन माताओं की उपलब्धियों के लिए उन्हें बधाई दी और कहा कि मां अतुलनीय है, अद्वितीय है। मां मिलती है, प्राप्त नहीं की जा सकती। वह अपने बच्चे के लिए कठोर से कठोर मेहनत करती है और जरूरत पडऩे पर उसके लिए जान भी लड़ा देती है। ऐसी मां के प्रति जिसके मन में श्रद्धा नहीं हो, वह इंसान नहीं हो सकता।

विश्व सुंदरी मानसी छिल्लर द्वारा मां के कार्य को संसार का सबसे श्रेष्ठ व्यवसाय बताने का जिक्र करते हुए राज्यपाल ने कहा कि मां के प्रति उसकी श्रद्धा ने ही उसे विश्व सुंदरी प्रतियोगिता में विजयी बनाया। उन्होंने कहा कि मां के प्रति इसी भाव को आगे बढ़ानेे के लिए डॉ. जी. सी. मिश्रा मैमोरियल एजुकेशन एण्ड चेरिटेबल ट्रस्ट हर साल मां सम्मान समारोह का आयोजन करती है। उन्होंने इस कार्य में सहयोग करने के लिए मानव मंगल स्मार्ट स्कूल की भी सराहना की।

प्रो. सोलंकी ने मदर्स डे पर आयोजित स्लोगन राइटिंग, क्लाज मेंकिंग आदि प्रतियोगिताओं के विजेता विद्यार्थियों को भी सम्मानित किया। उन्होंने दीप जलाकर समारोह का शुभारम्भ किया।

इस मौके पर जिन माताओं का सम्मान किया उनमें डबवाली (हिसार) की भतेरी देवी, मौलीजागरां, चंडीगढ़ की गुलनाज़ बानो, बनूड़ की मंजीत कौर, वाराणसी की ममता मिश्रा, चंडीगढ़ की पुष्पिंदर बाजवा रेणु पांडेय, सीमा शुक्ला और सुधा शुक्ला, अंबाला की विजय डोगरा और सुमन बाला और सोनीपत की सावित्री देवी शामिल हैं। समारोह में चौथा मदर ऑफ द ईयर का पुरस्कार कमलजीत देओल को दिया गया।

किसी ने दूसरों के घरों में झूठे बर्तन मांज कर अपने बेटे को सपना पूरा कर उसे एचसीएस अधिकारी बनाया, तो किसी ने घरों में झाड़ू पोछा कर अपनी बेटी की इच्छा को पूरा करते हुए उसे अंतरराष्ट्रीय स्तर का खिलाड़ी बनाया। किसी ने घर घर जाकर ट्यूशन पढ़ाकर अपने बेटे को सीए बनाया, तो किसी ने विपरीत परिस्थितियों में अपने बच्चों को अकेले पाला। यह वह माएं हैं जिन्होंने संघर्ष के रास्ते पर चलते हुए जिंदगी में मिली हर चुनौती का डट कर सामना किया। मदर्स डे के मौके पर सोमवार को जब ऐसी 12 संघर्षशील माओं का सम्मान किया तो सभागार में बैठे हर किसी की आंखे उनकी संघर्ष की कहानी सुनकर नम हो गईं।

इस दौरान देवेश मौदगिल ने डॉ.निष्ठा मिश्रा और मयंक मिश्रा की किताब ‘फ्रॉम होराइजऩ टू जेनिथ्स हाईट’ का विमोचन किया और पहली किताब प्रो.कप्तान सिंह सोलंकी को भेंट की। इस दौरान स्कूल के छात्र-छात्राओं की प्रस्तुति ने सबका मन मोह लिया जिसमें दिखाया गया कि हर किसी के जीवन में मां का महत्व कितना होता है और मां के न होने पर वह व्यक्ति अनाथ महसूस करने लगता है।

 

इससे पहले चण्डीगढ के मेयर देवेश मोदगिल ने भी अपने विचार रखे। समारोह में डॉ. जी. सी. मिश्रा मैमोरियल एजुकेशन एण्ड चेरिटेबल ट्रस्ट के प्रबंध ट्रस्टी मयंक मिश्रा, मानव मंगल स्मार्ट स्कूल के निदेशक संजय सरदाना व अनेक गणमान्य नागरिक उपस्थित थे।

 

इन्हें मिला सम्मान—

 

भतेरी देवी

हरियाणा के जिला हिसार के डबलावी में रहने वाली भतेरी देवी का संघर्ष उस दिन शुरू हुआ जब 1988 में उनके पति का निधन हो गया था। उनके पति रिक्शा चलाते थे। पति की मौत के बाद चारों बच्चों को भतेरी देवी ने संभाला। बच्चे उस समय बहुत छोटे थे। उन्होंने लोगों के घरों में झूठे बर्तन मांज कर किसी तरह से अपने बच्चों को पढ़ाया। कुछ समय मजदूरी भी की। दो साल पहले जब उनके बेटे जितेंद्र कुमार ने हरियाणा पब्लिक सर्विस कमीशन की ओर से ली गई एचसीएस की परीक्षा उत्तीर्ण की तो भतेरी देवी की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। अब जब उन्हें लोग एचसीएस अफसर की मां कहते हैं तो उन्हें खुद पर न सिर्फ गर्व होता है बल्कि यह अहसास भी होता है कि उनका संघर्ष बेकार नहीं गया। जितेंद्र कुमार सोनीपत में जिला परिषद के चीफ एक्जीक्यूटिव आफिसर पद पर तैनात है। भतेरी देवी का बड़ा बेटा जेबीटी है।

गुलनाज़ बानो

चंडीगढ़ के मौलीजागरां में रहने वाली गुलनाज़ बानो की बेटी रहनुमा जन्म से दिव्यांग है। वह एक पैर और दोनों हाथों से दिव्यांग है। लेकिन गुलनाज़ ने कभी भी रहनुमा को लाचार महसूस नहीं होने दिया। जब वह तीन साल की थी तब गुलनाज़ ने उसे खुद घर पर ही पढ़ाना शुरू किया। हाथ न होने के बाद भी तीन साल की उम्र में उसने मां के सिखाने पर कोयले व चॉक से पैरों से लिखना शुरू किया। गुलनाज़ अपनी बेटी की पढ़ाई के प्रति बेहद गंभीर हैं। वह चाहती हैं कि रहनुमा अपने पैरों पर खड़ी हो जाए और किसी पर निर्भर न रहे। गुलनाज़ के इसी हौसले के कारण आज रहनुमा दिव्यांग होते हुए भी किसी अन्य स्टूडेंट से कम नहीं है। वह दसवीं कक्षा में पढ़ती है। उसे ड्राइंग बनाने का शौक है और अपने पैरों से बहुत ही खूबसूरत ड्राइंग बनाती है। रहनुमा के पिता मजदूरी करते हैं और सीमित आय होने पर भी वह उसे कभी किसी चीज की कमी नहीं होने देते हैं।

मंजीत कौर

पंजाब के खानपुर बांगड़ गांव (बनूड़) की निवासी मंजीत कौर ने बचपन में ही अपनी बेटी रूपिंदर कौर के अंदर काबलियत देख ली थी। परिवार की आर्थिक हालत ठीक नहीं थी। उनके पति मोहाली में टू-व्हीलर मैकेनिक हैं। पति की आय सीमित होने के कारण मंजीत कौर ने खुद सिलाई का काम शुरू किया ताकि वह अपने दोनों बच्चों को अच्छी शिक्षा दे पाएं। उन्होंने बेटी को हमेशा प्रोत्साहित किया और उसे कभी आर्थिक तंगी का अहसास नहीं होने दिया। रुपिंदर का दाखिला मोहाली के स्कूल में जब हुआ तो स्कूल उनके घर से दूर होने के कारण मंजीत ने रूपिंदर को पढऩे के लिए अपनी मां के घर भेज दिया जो कि स्कूल से पास था। यहां वह अकसर उसके पास आ जाती थीं ताकि वह पढ़ाई पर पूरा ध्यान दे सके। मंजीत कौर के इस संघर्ष का नतीजा यह रहा है कि 2017 में उनकी बेटी ने पंजाब स्कूल शिक्षा बोर्ड की ओर से ली गई बारहवीं की परीक्षा में 94.67 प्रतिशत अंक लेकर जिला मोहाली में टॉप किया। अब रूपिंदर चंडीगढ़ से गवर्नमेंट कालेज से बीएससी (बायो-टेक्नोलाजी) कर रही हैं।

ममता मिश्रा

वाराणसी निवासी ममता मिश्रा के जीवन का संघर्ष उसी दिन शुरू हो गया था जब वह शादी के बाद अपने ससुराल आई थीं। बारहवीं कक्षा पास करने के बाद उनकी शादी कर दी गई थी। उस समय वह सिर्फ 20 साल की थीं। शादी के बाद उन्होंने बच्चों का पालन पोषण करते हुए बीए और एमए किया। पति की आय सीमित थी। अपने बच्चों के सपनों को पूरा करने के लिए उन्होंने घर घर जाकर ट्यूशन पढ़ाना शुरू किया। वह जो भी कमाती थीं उसे बच्चों की शिक्षा पर ही खर्च कर देती थीं। उनके कई सालों के संघर्ष को उस समय सफलता मिली जब पिछले साल उनकी बेटी को आईआईटी, कानपुर में एमएससी में दाखिला मिल गया और इस साल उनके बेटे ने सीए की फाइनल परीक्षा उत्तीर्ण कर ली। उसे चंडीगढ़ में ही एक नामी कंपनी में बहुत ही अच्छे पैकेज पर नौकरी भी मिल गई है। इस तरह उन्होंने अपने दोनों बच्चों की इच्छा को पूरा कर दिया। आज भी उन्होंने अपना संघर्ष जारी रखा हुआ है और तबियत ठीक न रहने पर भी वह बच्चों को रोज ट्यूशन पढ़ाने घर घर जाती हैं।

पुष्पिंदर बाजवा

चंडीगढ़ निवासी पुष्पिंदर बाजवा के जीवन में संघर्ष उस समय शुरू हो गया था जब वह बारहवीं कक्षा में थीं। अचानक पिता को पैरालिसिस अटैक आ गया। उनकी मां पर चार बच्चों की जिम्मेदारी आ गई। तब पुष्पिंदर ने तय किया कि एनटीटी कोर्स करेंगी और नौकरी करके अपने परिवार में सहयोग देंगी। लेकिन, अभी उनका कोर्स पूरा भी न हुआ था कि पिता चल बसे। पुष्पिंदर ने एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाना शुरू कर दिया और मां का सहयोग करने के लिए ट्यूशन भी पढ़ाने लगीं। एक साल बाद उन्होंने दूसरे स्कूल में ज्वाइन किया और स्कूल की प्रिंसिपल से मिले सहयोग के कारण स्कूल में पढ़ाते हुए पत्राचार से पहले ग्रेजुएशन पूरी की फिर बीएड। कुछ साल बाद उनकी शादी हुई और दो बच्चे हुए। सब कुछ ठीक चल रहा था कि शादी के कुछ साल बाद ही उनके पति का अचानक निधन हो गया। उस समय बच्चे बहुत छोटे थे। बेटी पहली क्लास में थी और बेटा दूसरी क्लास में पढ़ रहा था। मन में आया कि बच्चों के साथ आत्महत्या कर लें। लेकिन, ऐसा करने से कदम रुक गए। फिर उन्होंने हिम्मत का परिचय देते हुए अकेले अपने दोनों बच्चों का पालन पोषण किया। उनका बेटा अब थापर यूनिवर्सिटी से इंजीनियिरंग कर रहा है और बेटी एमसीएम कालेज से ग्रेजुएशन कर रही है। वह खुद अब सेक्टर-45 के एक स्कूल में कोआर्डिनेटर हैं।

रेणु पांडेय

चंडीगढ़ निवासी रेणु पांडेय और उनके पति लगभग 25 साल पहले बिहार से चंडीगढ़ आए थे। यह सपना लेकर कि वह अपने बच्चों को कुछ बना सकें। रेणु के पति को प्राइवेट नौकरी मिल गई। लेकिन, वेतन सीमित होने के कारण रेणु ने भी तय कर लिया कि वह भी पति का सहयोग करेंगी। उन्होंने चंडीगढ़ के सेक्टर-21 स्थित मानव मंगल हाई स्कूल में आया का काम करना शुरू किया। अपने बेटे और बेटी को आगे बढऩे के लिए हमेशा प्रोत्साहित किया और उन्हें किसी चीज की कमी नहीं होने दी। बेटे आदित्य की इच्छा एमबीए करने की थी। उसे पंजाब यूनिवर्सिटी के यूनिवर्सिटी बिजनेस स्कूल से एमबीए करवाया। हाल ही में कैंपस प्लेसमेंट के माध्यम से जब उसका चयन अंतराष्ट्रीय कंपनी तोलाराम ग्रुप में हुआ और कंपनी ने उसे सालाना 46 लाख रुपये का पैकेज दिया तो रेणु को लग गया कि उनका चंडीगढ़ आना सफल रहा। रेणु की बेटी चंडीगढ़ के एक स्कूल में टेबल टेनिस की कोचिंग देती है। बेटे को चाहे आज इतना बड़ा पैकेज मिल गया है, लेकिन आज भी उन्होंने आया का काम नहीं छोड़ा है।

सावित्री देवी

सोनीपत निवासी सावित्री देवी के पति लगभग 15 साल पहले घर छोडक़र चले गए थे। उसके बाद घर की पूरी जिम्मेदारी सावित्री के सिर पर आ गई थी। किसी तरह मजदूरी करके उन्होंने अपना व तीन बेटियों का का पेट भरा। उन्होंने दूसरों के घरों में झाडू़-पोछा लगाया तथा बाद में फैक्ट्री में नौकरी करते हुए चमड़ा काटने का काम किया। सावित्री की छोटी बेटी नेहा गोयल ने 9 साल की उम्र में घर के पास ही चलने वाली हॉकी एकेडमी में लड़कियों को खेलता देखकर खुद भी खेलने की इच्छा जताई। लेकिन किसी तरह परिवार चला रही सावित्री देवी के लिए बेटी को प्रैक्टिस कराने के साथ ही किट व अन्य सामान दिलाने के लिए फूटी कौड़ी तक नहीं थी। सावित्री ने बेटी को हॉकी खिलाने का जज्बा दिखाया और वह मजदूरी के साथ ही सुबह के समय आसपास के घरों में जाकर झाडू़-पोछा लगाने लगीं। उससे मिलने वाले रुपये से सावित्री देवी ने नेहा को हॉकी खेलने भेजना शुरू कर दिया। उनकी इस तपस्या का बेटी ने भी ऐसा फल दिया कि आज वह उस पर नाज करती हैं। बेटी नेहा गोयल ने हॉकी में दो बार भारत को चैंपियन बनाया और बेस्ट प्लेयर का अवार्ड हासिल किया। हाल ही में संपन्न हुए राष्ट्रमंडल खेल और कोरिया दौरे के लिए भारतीय महिला हॉकी टीम की 34 सदस्यीय टीम में नेहा का चयन हुआ।

सीमा शुक्ला

चंडीगढ़ निवासी सीमा शुक्ला के मन में धावक बनने की इच्छा थी। जिला स्तर पर उन्होंने प्रतिस्पर्धाओं में हिस्सा भी लिया, लेकिन परिवार के आर्थिक तौर पर मजबूत न होने के कारण तथा जरूरी सहयोग न मिल पाने के कारण वह आगे नहीं बढ़ सकीं। लगभग दो दशक पहले उत्तर-प्रदेश से वह अपने पति के साथ इसी उद्देश्य से चंडीगढ़ आईं थीं कि जो वह न बन सकीं, वह उनकी बेटी बने। सीमा ने यह सुनिश्चित किया कि उनकी बेटी दिव्यांशी को एथलैटिक्स में आगे बढऩे में कोई दिक्कत न आए। उनके पति मजदूरी करते हैं और वह खुद घरों में काम करती हैं। दिव्यांशी को आगे बढ़ाने के लिए वह सालों से मेहनत कर रही हैं। उनके इस संघर्ष का ही परिणाम है कि आज दिव्यांशी को चंडीगढ़ की सबसे तेज धाविका के तौर पर जाना जाता है। डीएवी कालेज में बीए में पढऩे वाली दिव्यांशी अलग अलग प्रतियोगिताओं में कई मेडल जीत चुकी है। वह खुद भी बहुत मेहनत कर रही है ताकि मां के सपने को पूरा कर सके और उनके इस संघर्ष को बेकार न जाने दे।

सुमन बाला

अंबाला निवासी सुमन बाला का संघर्ष उनकी बेटी आस्था के पैदा होने के तुरंत बाद शुरू हो गया था। एक लाख में से एक को होने वाली बीमारी सेरिब्रल पाल्सी के कारण आस्था का दिमाग पूरी तरह से विकसित नहीं हुआ था। इस वजह से जन्म से ही उसका शरीर शिथिल सा था। जब मां और बच्ची दोनों को पति और पिता के मजबूत साथ की जरूरत थी तब सुमन बाला के पति ने परिवार से खुद को अलग कर लिया। सुमन बाला आस्था को लेकर अपने मायके आ गईं जहां उन्हें सबसे पूरा सहयोग मिला। आस्था को स्कूल जाती बच्चियां आकर्षित करती थीं। वह भी पढऩा चाहती थी, लेकिन कोई स्कूल दाखिला देने को तैयार नहीं था। बहुत मुश्किल से उसे एक स्कूल में दाखिला मिला। घर से रोज उसे गोद में उठाकर सुमन बाला स्कूल छोडऩे जाती हैं और फिर वह आफिस चली जाती हैं। सुमन बाला ने भी ठान लिया था कि वह आस्था को एक दिन पैरों पर खड़ा करेंगी। वह उसे चेन्नई ले गईं जहां लगभग आठ महीने उसका इलाज चला। सुमन बाला की मेहनत और अथक प्रयास से आस्था 12 साल बाद पैरों पर खड़ी हुई। अब वह चाहती हैं कि आस्था के स्पेशल बच्चों के टीचर बनने से सपने को वह किसी तरह से पूरा कर सकें।

सुधा शुक्ला

चंडीगढ़ निवासी सुधा शुक्ला ने अपने 80 साल के जीवन में बहुत उतार चढ़ाव देखे हैं। शादी के बाद जुड़वां बेटे पैदा हुए, लेकिन एक के बाद एक दोनों ने दुनिया को अलविदा कह दिया। शादी के लगभग छह साल बाद बेटी हुई। उसके दिल में छेद था। जब बेटी अर्चना तीन साल की थी तो उसे दिल का दौरा पड़ा। डॉक्टरों ने उन्हें बोल दिया कि अर्चना किसी ही हाल में छह महीने से ज्यादा जीवित नहीं रहेगी। लेकिन, उन्होंने आशा नहीं छोड़ी। बेटी की देखभाल करने के लिए अपनी पसंदीदा नौकरी को छोड़ दिया। उस समय वह पंजाब यूनिवर्सिटी के हिंदी विभाग से पीएचडी भी कर रहीं थीं। लेकिन पीएचडी भी बीच में छोड़ दी ताकि बेटी की अच्छी तरह से देखभाल कर सकें। कुछ महीनों बाद बेटी को खो देने का गम न पालकर उन्होंने खुद को भी हौसला दिया और डॉक्टरों को भी अपनी बातों से ताकत दी। उनके इसी हौसले के कारण डॉक्टरों ने भी हिम्मत नहीं छोड़ी। अर्चना के दिल का आप्रेशन हुआ और वह बच गई। इस तरह से उन्होंने अर्चना को एक बार नहीं दो बार जन्म दिया। आज अर्चना पंजाब यूनिवर्सिटी में एसोसिएट प्रोफेसर हैं और उनकी छोटी बेटी दिल्ली के स्कूल में टीचर हैं।

विजय डोगरा

अंबाला निवासी विजय डोगरा के जीवन का संघर्ष उनके बेटे राहुल के जन्म के बाद से ही शुरू हो गया था। राहुल जब गर्भ में था तो उसकी हड्डियां 7 जगह से टूट गई थीं। जन्म लेने के बाद जब जांच हुई तो पता चला कि वह ऑस्टियोजेनेसिस इम्परफैक्टा बीमारी से ग्रसित है। यह जेनेटिक बीमारी 10 लाख लोगों में से किसी एक को होती है। जन्म से अब तक जाने-अनजाने में उसकी 100 से ज्यादा बार हड्डियां टूट चुकी हैं। विजय ने उसे हौसला दिया जिससे वह आगे बढ़ता गया। स्पेशल बच्चा होने की वजह से तमाम स्कूलों ने एडमिशन देने से मना किया। मुश्किल से तैयार हुए एक स्कूल ने उसे पढ़ाना शुरू किया। इसी बीच 2009 में राहुल के पिता सुरेंद्र कुमार डोगरा का निधन हो गया। विजय की मुश्किलें और बढ़ गईं लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं छोड़ी। विजय डोगरा की मेहनत और राहुल की लगन के कारण 2012 में उसने 95त्न अंक के साथ 10वीं और 2014 में 90त्न अंक से 12वीं पास की। इसके बाद 78त्न अंक पाकर एसडी कॉलेज से ग्रेजुएशन की। उसे पेंटिंग का भी शौक है। रेलवे में चीफ ऑफिसर सुपरिंटेंडेंट विजय डोगरा अब राहुल को आईएएस अधिकारी बनाकर उसकी इच्छा पूरा करना चाहती हैं।

कमलजीत देओल (मदर आफ द ईयर अवार्ड)

कमलजीत देओल भारतीय वायु सेना में अकेले उड़ान भरने वालीं देश की पहली महिला पायलट हरिता कौर देओल की मां हैं। उन्होंने एक ऐसी बहादुर बेटी को जन्म दिया जिस पर न सिर्फ चंडीगढ़ बल्कि पूरा देश नाज़ करता है। 1972 में चंडीगढ़ में जन्मी हरिता शॉर्ट सर्विस कमिशन के अधिकारियों के रूप में वायु सेना में शामिल होने वाली पहली सात महिला कैडेटों में से एक थीं। 1992 में हरिता ने एयरफोर्स ज्वाइन की थी और 2 सितंबर 1994 को जब उन्होंने एक एविरो एचएस -748 में अपनी पहली उड़ान भरी थी, तब वह सिर्फ 22 साल की थीं। उन्होंने बहुत ही छोटी उम्र में सफलता हासिल कर खुद की एक अलग पहचान बनाई थी। पर दुर्भाग्यवश 25 दिसंबर, 1996 को आंध्र प्रदेश में विमान दुर्घटना में उनका निधन हो गया था। तब वह मात्र 24 साल की थीं। अपनी पहली उड़ान भरने के बाद 10 हजार फीट की ऊंचाई पर आसमान में बादलों से लुक्का-छिप्पी खेल देश के लिए इतिहास रचा और औरतों के लिए अपने सपने पूरे करने का प्रेरणास्रोत बन गई थीं।

Suvash Chandra Choudhary

Editor-in-Chief

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