मशहूर शायर ” मिर्जा गालिब ” फिरोजपुर झिरका के ” नवाब शमशुद्दीन ” के बहनोई थे

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खास रिपोर्ट :                                                                                                         फोटो : साभार , यू ट्यूब 

: महान शायर मिर्जा गालिब का हरियाणा के मेवात से है चोली-दामन का साथ

: मिर्जा की 220वी जयंती पर किसी को याद नही आये ग़ालिब

: उर्दू जबान के महान शायर थे मिर्जा गालिब

: आज 27 दिसम्बर को है मिर्जा गालिब की 220वी जयंती

 

यूनुस अलवी

 
मेवात : देश के महान शायर मिर्जा गालिब की शुक्रवार को 217 वीं जयंती है। दिल्ली के अलावा मेवात ऐसी धरती है, जहां से गालिब का चोली दामन का साथ है। मेवात मे मिर्जा गालिब से जुडी कई दासताने हैं फिर भी सरकारी और गैरसरकारी संगठनों द्वारा उन्हें याद करने की जहमत तक उठाई जाती है। इससे तो अब यही नजर आता है कि मेवात कि जनता अपने सपूतों को भूलती जा रही है।
 
    देश के महान शायर मिर्जा गालिब का मूल नाम असदुल्लाह बेग खां था। उनका जन्म 27 दिसंबर 1797 को हुआ और 15 फरवरी 1869 को दिमांग  की नस फटने के कारण उनका स्वर्गवास हो गया था। मेवात के तत्कालीन फिरोजपुर झिरका के नबाब शमशुदीन से गालिब की रिश्तेदारी थी। नबाब शमशुदीन की बहन उमराव बैग से मिर्जा गालिब का निकाह हुआ था।
 
     फिरोजपुर झिरका के नबाब अहमद बख्श के पिता मिर्जा आरिफ जान 18वीं शताब्धि के मध्य में भारत आये थे जबकी गालिब के दादा कुकान बेग खां मध्य एशिया से यहां आये थे। अहमद बख्श की बहन गालिब के ताऊ नसरू ल्लाह खां से बिहाई गई थी। गालिब ने लिखा है कि दादा की मृत्यु के बाद उनके पिता ने लखनऊ जाकर नबाब आसिफदौला के यहां नौकरी की थी। वह हेदराबाद के नबाब निजाम अली खां के नौकर भी रहे। गालिब के पिता अबदुल्लाह बेग खान की शादी मुगल सेना के एक अवकाश प्राप्त सेना नायक गुलाम हुसैन खां के परिवार में हुई। उनकी तीन संताने थी, दो पुत्र एक पुत्री। पुत्रों में सबसे बडे हमारे मशहूर शायर मिर्जा गालिब थे। मिर्जा गालिब का मूल नाम असदुल्लाह बेग खां था। वर्ष 1802 में अबदुल्लाह बेग खां की मृत्यु के समय गालिब केवल पांच वर्ष के थे। उसके बाद गालिब का परिवार नसरूल्लाह बेग खां के संरक्षण में आगरा आ गया।
 
    1803 में जब अंग्रेजो का प्रधान सेनापति लोर्ड केक आगरा पहुंचा तो उस समय नसरूल्लाह खां वहां के किला के नायक थे। उन्होने अपने साले अहमद बख्श खां के कहने पर उनका कोई विरोध नहीं किया और किला लोर्ड केक को सौंप दिया। बाद में लोर्ड केक ने नसरूल्लाह बेग खां को भरतपुर के सोंक व सूसा नामक दो किले जीवन भर के लिये इनाम में दे दिये। वर्ष 1806 में एक दिन नसरूल्लाह खां की हाथी से गिरकर मौत हो गई। इस तरह नसरूल्लाह खां और गालिब का परिवार एक बार फिर बेसहारा हो गया।
 
    उधर 1806 तक नबाब अहमद बख्श फिरोजपुर झिरका और लोहारू भिवानी की दो छोटी रियासतों के नबाब बन चुके थे। नबाब ने इन बच्चों की देख भाल के लिये फिरोजपुर झिरका बुला लिया। लोर्ड केक से कहकर स्वर्गीय नसरूल्लाह बेग खां के परिवार के भरण पौषण के लिये 10 हजार रूपये सालाना पैंशन स्वीकृ त करा ली।  किन्हीं कारणों से यह एक माह बाद ही पांच हजार रूपये कर दी गई। मिर्जा गालिब और उसके भाई बहनों को इनमें से 750 रूपये सालाना हिस्सा मिलता था। आठ अक्तुबर 1827 को नबाब अहमद बख्श की कभी मृत्यु हो गई। अहमद बख्श के सबसे बडे पुत्र होने के नाते शमशुदीन दोनों रियासतों का नबाब बन गया। 
 
     18 अक्तुबर 1835 को दिल्ली के रेजीडेंट फ्रेजर की हत्या के जुर्म में नबाब शमशुदीन को फांसी दे दी गई थी। उसके बाद मिर्जा गालिब को मिलने वाली पैंशन हमेशा के लिये बंद कर दी गई। कहते हैं जब इंसान पर मुसीबतों का पहाड टूटता है तो वह सोच फिकर में डूब जाता है। उस दौरान उसके दिल से निकलने वाले अलफाज एक हीरा बनकर निकलते है जिन्हें पिरोने के बाद एक लडी बन जाती है। इस तरह हमारे महान शायर मिर्जा गालिब के उन गमों के दौरान लिखे गये अलफाज शेर बनते चले गये और यही शेर उन्हें दुनियां में महशूर शायर बना गये।
 
   इसी महान शायर को याद करने के लिये मेवात के बुद्धिजीवि लोगों के पास चंद मिंटों का समय भी नहीं है कि उन्हें श्रधांजलि दी जा सके। 

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