सन्दीप पाराशर
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एक बार ‘राजा ब्रम्हदत्त’ के राजपुरोहित राजपुरोहित ‘देवदत्त’ ने सोचा, राजा ब्रहमदत्त मेरा बहुत सम्मान करते हैं। यह सम्मान मेरे ज्ञान का है या सदाचार का? इसकी पहचान करनी चाहिए।
एक दिन राजसभा से लौटते हुए ‘देवदत्त’ कोषागार के पास से निकल रहे थे। उन्होंने चुपचाप एक सिक्का उठाकर अपने पास रख लिया।
कोषाध्यक्ष यह देखकर हैरान हुआ। वह सोचने लगा, देवदत्त जैसे महान व्यक्ति ने सिक्का क्यों उठाया होगा, और उठाया है तो अवश्य कोई प्रयोजन होगा। आज हो सकता है जल्दी के कारण कुछ नहीं बताया, बाद में बता देगें।
दूसरे दिन भी देवदत्त ने यही किया। कोषाध्यक्ष आज भी धैर्य बनाए रहा।
तीसरे दिन भी देवदत्त ने मुट्ठी भरकर स्वर्ण मुद्राएं उठा लीं। अब कोषाध्यक्ष से नहीं रहा गया। उसे दाल में कुछ काला नजर आया। उसने तत्काल सिपाहियों को बुलाकर देवदत्त को गिरफ्तार कर लिया।
दूसरे दिन उसे राजा के समक्ष पेश किया गया। सभी चकित थे कि इतना बड़ा विद्वान और ऐसी चोरी!
राजा ने देवदत्त से कहा- ‘आपने बहुत बड़ा अपराध किया है। साथ ही हमारी श्रद्धा को चोट पंहुचाई है।’
और फिर राजा ने सजा के तौर पर चार उंगलियां काटने का फरमान सुना डाला।
फैसला सुनने के बाद देवदत्त मुस्कराकर बोले, ‘मैंने धनवान बनने की इच्छा से चोरी नहीं की थी। मैं तो यह जानना चाहता था कि आप मेरा सम्मान ज्ञान के कारण करते हैं या सदाचार के कारण? मैंने परीक्षा ली है। मेरा ज्ञान तो जितना कल था उतना आज भी है। दो दिन में फर्क सिर्फ इतना आया है कि मेरा सदाचार खंडित हुआ है। इसके कारण मुझे सजा मिली है।’
राजा को पूरा माजरा समझ में आ गया। उन्होंने देवदत्त को सम्मान सहित आजाद कर दिया।
सारांश यह है कि… ज्ञान, धन, सौन्दर्य इत्यादि थोडी देर को अवश्य सम्मान दिला सकते हैं किन्तु बिना सदाचार और सद्व्यवहार के सम्मान को स्थिर नहीं रख सकते हैं। जबकि सदाचार और सद्व्यवहार अकेले भी किसी को सम्मान दिलाने और उसे स्थिर रखने में सक्षम हैं॥