आदित्य तिवारी
1942 का साल हिन्द महासागर से उठी मानसून की हवाएं भारत पहुंच चुकी थीं। उनके साथ ही घमासान नौसैनिक युद्ध की खबर भी पहुंची। विश्व दो ध्रुबों में बंट चुका था। भारत भी उबल रहा था और सदियों पुरानी दासता की बेडि़यों को तोड़ डालने का इंतजार कर रहा था। ऐसे वक्त में विश्व युद्ध में ब्रिटेन को भारत के समर्थन के बदले में औपनिवेशिक राज्य का दर्जा देने के प्रस्ताव के साथ सर स्टैफर्ड क्रिप्स का भारत आगमन हुआ। ब्रिटेन ने महारानी के प्रति निष्ठा के बदले में भारत को स्वशासन देने का प्रस्ताव किया। लेकिन उनको इस बात का अहसास नहीं था कि शहीद भगतसिंह और चंद्रशेखर आजाद जैसे क्रांतिकारियों ने देश को उपनिवेश बनता देखने के लिए अपने जीवन का वलिदान नहीं किया था। देश भर के स्वतंत्रता सेनानियों की एक ही मांग थी, और यह थी पूर्ण स्वराज। इसलिए 8 अगस्त 1942 की पूर्व संध्या पर गांधीजी ने देशवासियों के समक्ष शंखनाद करते हुए कहा, ‘ये एक छोटा-सा मंत्र है जो मैं दे रहा हूं। आप चाहें तो इसे अपने हृदय पर अंकित कर सकते हैं और आपकी हर सांस के साथ इस मंत्र की आवाज आनी चाहिए। ये मंत्र है –‘करो, या मरो’।
भारत छोड़ो आंदोलन ऐसे समय प्रारंभ किया गया जब दुनिया जबरदस्त बदलाव के दौर से गुजर रही थी। पश्चिम में युद्ध लगातार जारी था और पूर्व में साम्राज्यवाद के खिलाफ आंदोलन तेज होते जा रहे थे। भारत एक ओर महात्मा गांधी के नेतृत्व की आशा कर रहा था जो अहिंसक उपायों और सत्याग्रह से समाज को बदलना चाहते थे। दूसरी तरफ बंगाल के शेर सुभाष चंद्र बोस जिन्होंने दिल्ली चलो का नारा दिया था, भारत को आजाद कराने के लिए एक फौज के साथ निकल पड़े थे। जन-आंदोलनों से भारत की आजादी के आंदोलन की मजबूत जमीन पूरी तरह तैयार हो चुकी थी और अब इसमें स्वतंत्रता के बीज बोने भर की देर थी।
भारत छोड़ो आंदोलन की घोषणा होने के 24 घंटे के भीतर ही सभी बड़े नेता गिरफ्तार कर लिये गये और जनता का मार्गदर्शन करने वाला कोई नहीं रहा। फिर भी आंदोलन का नेतृत्व करने के लिए जनता के बीच से ही नेता उभर कर सामने आये। लोग ब्रिटिश शासन के प्रतीकों के खिलाफ प्रदर्शन करने सड़कों पर निकल पड़े और उन्होंने सरकारी इमारतों पर कांग्रेस के झंडे फहराने शुरू कर दिये। लोगों ने गिरफ्तारियां देना और सामान्य सरकारी कामकाज में व्यवधान उत्पन्न करना शुरू कर दिया। विद्यार्थी और कामगार हड़ताल पर चले गये। बंगाल के किसानों ने करों में बढ़ोतरी के खिलाफ संघर्ष छेड़ दिया। सरकारी कर्मचारियों ने भी नियमों का उल्लंघन शुरू कर दिया। यह एक ऐतिहासिक क्षण था। यह विदेशी दासता के खिलाफ महज एक आंदोलन भर नहीं था, बल्कि भारतीय जनता में एक नयी चेतना का संचार था। भारत छोड़ो आंदोलन का इतिहास गुमनाम योद्धाओं के बलिदानों से भरा पड़ा है। उस दौर के किसानों, फैक्टरी मजदूरों, पत्रकारों, कलाकारों, छात्रों, शिक्षाशास्त्रियों, धार्मिक संतों और दलितों की कई गुमनाम गाथाएं हैं।
भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान ही डॉ. राम मनोहर लोहिया, जय प्रकाश नारायण और अरुणा आसफ अली जैसे नेता उभर कर सामने आये। आंदोलनकारियों ने देश के बहुत से भागों में समानांतर सरकारें गठित कर दीं। उत्तर प्रदेश के बलिया में चित्तू पांडे ने सरकार का गठन कर किया जबकि वाई.बी. चव्हाण और नाना पाटिल ने सतारा में सरकार बना ली। भारत छोड़ो आंदोलन इस मायने भी अनोखा था क्योंकि इसमें महिलाओं की भरपूर भागीदारी थी। उन्होंने आंदोलन में न सिर्फ हिस्सा लिया बल्कि पुरुषों की बराबरी करते हुए इसका नेतृत्व भी संभाला। मातंगिनी हजारा ने बंगाल में तामलुक में 6000 लागों के जुलूस का नेतृत्व करते हुए, जिनमें से अधिकतर महिलाएं थीं, एक स्थानीय पुलिस थाने को तहस-नहस कर दिया। तिरंगा हाथ में लिए पुलिस की गोलियों से वह शहीद हुईं। इसी तरह सुचेता कृपलानी ने भी आंदोलन में बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया; बाद में उन्हें भारत की पहली महिला मुख्यमंत्री बनने का गौरव भी प्राप्त किया। ओडि़शा में नंदिनी देवी और शशिबाला देवी तथा असम में कनकलता बरुआ और कुहेली देवी पुलिस दमन में शहीद हुईं। उषा मेहता का अनोखा योगदान यह था कि उन्होंने मुंबई में कांग्रेस का गुप्त रेडियो स्टेशन शुरू किया।
पटना शहर में पुराने सचिवालय भवन के सामने स्कूली बच्चों की आदमकद प्रतिमाओं वाला मूर्तिशिल्प है। इसमें सबसे आगे वाला लड़का धोती-कुर्ता और गांधी टोपी पहने हुए है और उसके पीछे छह और बच्चे हैं। सबसे आगे वाले लड़के के हाथों में झंडा है जबकि उसके पीछे चल रहे बच्चे या तो जमीन पर गिरे पड़े हैं या झंडे को लपक रहे हैं। यह मूर्तिशिल्प भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान सचिवालय भवन पर कांग्रेस का झंडा फहराने का प्रयास कर रहे स्कूली बच्चों के हैं जिनकी निर्दयतापूर्वक हत्या कर दी गयी थी। ये बच्चे भारत छोड़ो आंदोलन की आत्मा को मूर्तिमान करते हैं। भारतीय स्वतंत्रा संग्राम की जीवंतता और विविधता इन्हीं वलिदानों की वजह से है।
भारत छोड़ो आंदोलन इस अर्थ में एक युगांतरकारी आंदोलन था क्योंकि इसने भारत की भावी राजनीति की आधारशिला रखी। गोवालिया टैंक मैदान से अपने ऐतिहासिक भाषण में गांधीजी ने कहा, ‘जब भी सत्ता मिलेगी, भारत के लोगों को मिलेगी और वही इस बात का फैसला करेंगे कि इसे किसे सौंपा जाता है…..’ भारत छोड़ो आंदोलन में ही आजादी की लड़ाई का नेतृत्व ‘हम भारत के लोगों’ को प्राप्त हुआ, जिन्होंने देश की स्वतंत्रता का संग्राम लड़ा।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने ताजा ‘मन की बात’ रेडियो कार्यक्रम में देश के युवाओं का आह्वान किया कि वे ‘संकल्प से सिद्धि’ का अभियान छेडें। असल में यह आंदोलन भारत से गरीबी, भ्रष्टाचार, आतंकवाद, जातिवाद और सांप्रदायिकता को मार भगाने का संकल्प होगा। उन्होंने कहा कि 1942 से 1947 तक के पांच वर्षों में समूचा राष्ट्र अंग्रेजों के खिलाफ एकजुट हो गया था। इसी तरह 15 अगस्त, 2017 का दिन भारत को 2022 तक इन सब बुराइयों से मुक्त कराने का संकल्प लेने का दिन होना चाहिए. उनका यह आह्वान उस आह्वान के अनुरूप है जिसमें उन्होंने ‘नये भारत’ का निर्माण करने के लिए कहा था। ऐसा भारत जिसमें नयी आशाएं और नये स्वप्न होंगे; जिसमें गरीब-अमीर सब के साथ बराबरी का व्यवहार किया जाएगा; जिसमें नारी शक्ति की आकांक्षाएं पूरी होंगी; जिसमें जनता और लोकतंत्र के बीच गहरा रिश्ता होगा और एक ऐसा भारत जो भ्रष्टाचार व कालेधन से मुक्त होगा। प्रधानमंत्री मोदी अक्सर कहते हैं कि वह देश की स्वतंत्रता के बाद पैदा हुए और उन्हें स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने का सुअवसर नहीं मिला। यही बात देश के अधिकांश युवाओं पर भी लागू होती है। भारत छोड़ो आंदोलन की 75 वीं जयंती ‘देश की खातिर अपना जीवन उत्सर्ग करने से वंचित रहे’ उन सब युवा भारत वासियों के लिए इस बात का एक मौका होगा कि वे ‘देश के लिए जियें’ और उन सपनों को पूरा करें जो हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने इसके बारे में देखे थे।
लेखक फिलहाल इंडिया फाउंडेशन में वरिष्ठ रिसर्च फैलो हैं. वे एक कवि भी हैं. इस लेख में व्यक्त विचार उनके निजी विचार हैं.