ऊॅं नम: शिवाय : सृष्टि रचना एवं आदिकारण महादेव

Font Size

ब्रह्माण्डीय मन के प्रतीक भगवान ब्रह्मा !
चराचर जगत के पालनकर्ता विष्णु !
रूद्र को सृष्टि के संहार का दायित्व !

प्रलय के उपरांत सर्वत्र केवल अंधकार ही अंधकार था, न सूर्य दिखायी देते थे न चन्द्रमा। अन्य ग्रह-नक्षत्रों का अस्तित्व भी समाप्त हो चुका था। दिन और रात की व्यवस्था भी समाप्त हो चुकी थी। अग्रि, पृथ्वी, जल और वायु का भी विलय हो चुका था। उस समय एक मात्र सत् ब्रह्म भगवान सदाशिव की सत्ता विद्यमान थी। इस काल को अनादि और चिन्मय कहा जाता है जबकि त्रिनेत्रधारी भगवान महादेव जी को वेद, पुराण एवं उपनिषद् पार ब्रह्म परमेश्वर और त्रिलोकपति कहते हैं।

गौरीपति भगवान् शिव अपने निराकार रूप में शून्य काल में तपस्या में लीन थे। उनकी हजारों वर्षों की समाधिस्थ अवस्था का ही परिणाम है कि परमसत्ता के मालिक औघड़दानी शंभु के मन में अचानक सृष्टि रचना की इच्छा उत्पन्न हुई। उन्होंने सोचा कि मैं एक से अनेक हो जाऊं। यह विचार आते ही महेश्वर ने अपनी परा शक्ति माता अम्बिका को प्रकट किया तथा उनसे कहा कि हमें सृष्टि के लिए किसी दूसरे पुरूष का सृजन करना चाहिए। उनके कंधे पर ही सृष्टि रचना एवं संचालन की जिम्मेदारी रख कर हम पुन: आनन्दमय लोक में पुन: समाधिस्थ हो सकेंगे। यह दृढ़ निश्चय कर अपार शक्ति के भंडार पार्वती बल्लभ त्रिलोकीनाथ ने शक्ति का आवाहन कर अपने वाम अंग के दसवें भाग पर अमृत मल दिया। इससे तत्काल एक दिव्य पुरूष प्रकट हुआ जिनका सौन्दर्य आकर्षक एवं अतुलनीय था। उनमें सतोगुण का तेजपुंज प्रवाहित हो रहा था जो परम शांत व अथाह क्षीर सागर की तरह गम्भीर था। बुद्धि के अधिष्ठाता एवं ज्ञान के देवता शंकर से मिली अद्वितीय शक्ति से उत्पन्न रेशमी पीताम्बर में इस पुरूष की शोभा अवर्णनीय थी। उनके चारो हाथों में शंख, चक्र गदा और पद्म सुशोभित थे।

उस दिव्य पुरूष ने परम सत्ताधारी शिव से अपना नाम और काम निश्चित करने की विनती की। तभी भोले नाथ ने मुस्कुराकर कहा – वत्स ! क्योंकि तुम्हारा स्वरूप व्यापक और तेजोमय है इसलिए तुम्हारा नाम विष्णु होगा और तुम्हारा कार्य सृष्टि का पालन करना होगा। लेकिन इससे पूर्व तुम तप करो (शिव के सगुण रूप का चिन्तन करो)। भगवान त्रिलोचन के आदेश पर अमल करते हुए श्री विष्णु जी घनघोर तपस्यारत हो गए। उसी तपस्या के प्रतिफल से उनके अंगों से जल-धारा प्रस्फुटित होने लगी। उनसे उत्पन्न अथाह जल के प्रवाह से आकाश मंडल भर आया और इसलिए ही उन्होंने जल को ही अपने शयन कक्ष के रूप में अपना लिया। उनका नाम जल यानि नार में शयन करने के कारण ही नारायण हो गया।

कालान्तर में क्षीर सागर में सोए हुए भगवान नारायण की नाभि से कमल प्रकट हुआ। तत्काल ब्रह्माण्डीय बुद्धि के अधिष्ठाता एवं ज्ञान के देवता भगवान शिव ने अपने दाहिने अंग से चतुुर्मुख ब्रह्मा को प्रकट कर उक्त कमल पर बैठा दिया। भूतनाथ शिव की अदभुत् माया के वशीभूत ब्रहा जी उक्त कमल नाल में भी अनंत काल तक विचरण करते रहे। उन्हें अपने जन्मदाता का दर्शन नहीं हुआ। ब्रह्मा जी की भ्रम अवस्था पर द्रवित हो कर भगवान की नभवाणी हुई और उन्हें तप कर शक्ति संग्रहित करने को कहा गया। ब्रह्मा जी ने अपने जम्रदाता के दर्शन हेतु बारह वर्षों तक तप किया जिससे उन्हें भगवान विष्णु के दर्शन हुए।

कहा जाता है कि लीलाधारी शिव की लीला से श्री विष्णु एवं ब्रह्मा जी के बीच वाद विवाद होने लगा और सहसा एक दिव्य अग्रि स्तम्भ का चेतन स्वरूप सामने आया। बहुत कोशिशों के बाद भी ब्रह्मा व विष्णु उक्त अद्भुत् अग्रि स्तम्भ के श्रोत का पता लगाने में असमर्थ रहे। कठोर तपस्या से प्राप्त शक्ति को निष्प्रभावी जान भगवान् विष्णु ने आर्त हो कर प्रार्थना की कि हे परमात्मा, हम आपके स्वरूप से अनभिज्ञ हैं। आप हमारे जन्मदाता हैं। कृपा कर आप हमें दर्शन दीजिए।

नारायण की आर्त पुकार सुन कर गौरी पति महादेव तत्काल प्रकट हो गए और बोले- हे सुरश्रेष्ठगण! मैं तुम दोनों की भक्ति व तप से प्रसन्न हूं। इसलिए ब्रह्माण्डीय मन के प्रतीक ब्रह्मा ! तुम मेरी आज्ञा से सृष्टि की रचना करो और वत्स विष्णु ! तुम इस चराचर जगत का पालन करो। तत्पश्चात प्रलय को अपने आधीन रखने वाले त्रिपुर शत्रु, भगवान सदा शिव ने अपने हृदय कमल से रूद्र की उत्पत्ति की और उन्हें सृष्टि के संहार का दायित्व दिया।

भगवान शिव का स्मरण करते हुए ब्रह्मा जी निर्विघ्र रूप से सृष्टि की रचना करने लगे और सर्वप्रथम पंचतत्व – अग्रि, जल, आकाश, पृथ्वी एवं वायु, नदी, पर्वत व समुद्र आदि की रचना की जिन पर सृष्टि के प्रत्येक जीव जन्तु एवं मानव मात्र का जीवन निर्भर है।

सृष्टि की विचित्र रचना के बीच ही देवता व दानव दोनों पृथ्वी पर उत्पन्न हो गए। यहां तक कि तामसी शक्तियों ने भी अपना घर बना लिया। काम, क्रोध, मोह, अहंकार एवं ईष्र्या के फलस्वरूप इस संसार में शुभ व अशुभ कर्म भी हावी होने लगे। सदाचार , दुराचार, अनाचार व व्यभिचार ने भी नित शुभ व अशुभ घटनाओं को अंजाम देना शुरू कर दिया। देवता व दानव के बीच होने वाले कलह ने ब्रह्मा जी को दु:खी कर दिया। अंतत: ब्रह्मा जी भागवान भोले नाथ शंकर के दरबार में आर्त पुकार करते हुए पहुंचे। उन्होंने महेश्वर से दीन बन कर विनती की कि प्रभु आपकी आज्ञानुसार मैंने सृष्टि की रचना की जो निरंतर बढ़ती जा रही है। इससे सृष्टि का संतुलन डगमगाने लगा है। अब आप ही इसका कोई उपाय कीजिए।

ब्रह्मा रचित इस जगत के संतुलन के लिए ही भगवान आशुतोष ने कर्ई प्रकार की अद्भुत् शक्तियों की उत्पत्ति की जो अनादि काल से इस चराचर जगत का संचालन कर रही हैं। इस प्रकार कल्याणकारी एवं संहारकर्ता शिव और शक्ति इस सृष्टि की रचना के आदिकारण हैं।

You cannot copy content of this page