क्या देश में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ होंगे ? मोदी सरकार की क्या है मंशा ….

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-केंद्र सरकार का पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में समिति गठित करने का ऐलान 

सुभाष चौधरी /The Public World 

नई दिल्ली :  नरेंद्र मोदी सरकार ने आज एक और बड़ा फैसला लेते हुए “एक देश – एक चुनाव” को लेकर एक समिति का गठन करने का ऐलान किया है. राजनीतिक दृष्टि से बेहद अहम इस समिति का अध्यक्ष पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को बनाया गया है. यह समिति इस मुद्दे पर विचार करने के बाद अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपेगी. इसके बाद  सरकार यह तय करेगी कि आने वाले समय में  लोकसभा चुनाव के साथ ही सभी राज्यों में विधानसभा के चुनाव भी कराये जाएँ या नहीं.

उल्लेखनीय है कि देश में एक देश-एक चुनाव को लेकर लम्बे समय से बहस चलती रही है. वर्ष 2019 में नरेंद्र मोदी के दोबारा पीएम बनने के बाद इस विचार को और मजबूती मिली. इसको लेकर समिति गठित करने और सभी राजनीतिक दलों से विचार विमर्श करने की बात की गई थी . अगर इस प्रस्ताव को मान लिया गया तो देश में होने वाले सारे चुनाव एक साथ ही करा लिए जाएगे .

भारत को आजादी मिलने के कुछ समय बाद तक लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ ही कराए जाते थे लेकिन इस प्रथा को बाद में खत्म कर विधानसभा और लोकसभा चुनाव को अलग-अलग से कराया जाने लगा. इसको लेकर विपक्ष का मत अलग अलग है. अधिकतर क्षेत्रीय दल इस प्रस्ताव का विरोध करेंगे. कांग्रेस पार्टी इस पर क्या रुख अपनाती है यह अभी अप्ष्ट नहीं है . अभी तक उनकी ओर से आधिकारिक बयान नहीं आया है.

दूसरी तरफ केंद्र सरकार ने 18 से 22 सितंबर तक संसद का विशेष सत्र आहुत किया है.  चर्चा जोरों पर है कि सरकार इस सत्र में ही एक देश एक चुनाव कराने के प्रस्ताव सम्बन्धी एक बिल ला सकती है. इस पर विपक्ष की ओर से विरोध की पुरजोर संभावना है.

विपक्ष की क्या है आशंका ? 

विपक्ष को इस बात की आशंका है कि केंद्र में बैठी सरकार को इस प्रकार के प्रस्ताव से फायदा हो सकता है. ख़ास कर क्षेत्रीय दल नुकसान में रहेंगे क्योंकि जिन राज्यों में उनकी सरकारें हैं उन्हें कार्यकाल पूरा होने से पूर्व ही सत्ता से हाथ धोना पड़ सकता है. दूसरी तरफ एकसाथ लोकसभा और विधान सभा के चुनाव करवाने से चुनावी पक्रिया बेहद जटिल और लम्बी हो जायेगी. साथ ही चुनावी परीणाम भी देरी से आयेंगे. अभी हाल ही में देश के 5 राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं . अगर इसे रोका गया तो विधानसभा के कार्यकाल भी बढाने होंगे.  लोकसभा चुनाव को अगर समय से पूर्व इन राज्यों के साथ करा लिया गे तो शायद यह नौवत नहीं आये.

सवाल यह है कि जब एक राज्य में विधानसभा चुनाव कई चरणों में करवाने पड़ते हैं और सुरक्षा बलों की कमी महसूस की जाती है तो एक साथ इतने बड़े पैमाने पर चुनावी प्रक्रिया को संपन्न करवाने के लिए न तो उतने संसाधन हैं और न ही सुरक्षा बल. राज्यों की मशनिरी भी इस लिहाज से तैयार नहीं है. ईवीएम और वी वी पेट भी पर्याप्त नहीं हैं.

अगर बात की जाए छोटे बड़े सभी दलों को चुनावी राजनीति में समान अवसर मिलने की, तो इस लिहाज से बड़े दल जिनके पास कार्यकर्ताओं की बड़ी फ़ौज है और संसाधन भी है उनके सामने चुनाव प्रचार करने में छोटे दल पिछड़ जायेंगे. एक साथ विधानसभा और लोकसभा के चुनाव हुए तो कई क्षेत्रीय दल तो अपने राज्य से बाहर जाने की बात सोच भी नहीं पायेंगे और न ही  दूसरे राज्यों में लोकसभा का चुनाव ही लड़ पायेंगे. उनके लिए विवशता रहेगी कि वे विधानसभा पर फोकस करें या फिर लोकसभा पर.

किस तरह की कठिनाई आ सकती है ? 

इस व्यवस्था के लागू होने से संवैधानिक, राजनीतिक, ढांचागत चुनौतियां बढ़ेंगी. साथ ही साथ विधानसभा, लोकसभा का एक दिन का कार्यकाल बढ़ाने पर संवैधानिक संशोधन भी ज़रूरी हो जाएगा. ध्यान देने वाली बात यह भी है कि वर्ष 1952 के बाद से, कई लोकसभाएं निर्धारित समय से पहले ही भंग कर दी गईं थी. 1971, 1980, 1984, 1991, 1998, 1999 और 2004 में  समय से पहले भंग की गईं थी । अगर कोई केंद्र सरकार भविष्य में ऐसा करती है तो क्या  राज्य सरकारें भी एक साथ चुनाव कराने की दृष्टि से अपनी सरकारों को भंग करने को मजबूर होंगी . और ऐसा राज्य सरकारें नहीं करती हैं तो फिर इस प्रस्ताव का क्या होगा ? ऐसे कई अहम सवाल हैं जिनपर पूर्व राष्ट्रपति की अध्यक्षता वाली समिति को विचार करना होगा.

जहाँ राज्यों में सरकारें अल्पमत में आने या किसी अन्य कारणों से समय से पूर्व गिरती है तो उसके लिए क्या किया जाएगा . क्या ऐसे राज्यों के लिए आगामी चुनाव मध्यावधि चुनाव माना जाएगा ?  विधानसभा का कार्यकाल घटाने या बढ़ाने पर सर्वसम्मति कैसे बना पाएगी सरकार, ये भी एक बड़ा सवाल है. रही बात भारी भरकम चुनाव आयोग की तो फिर इसको अगले पांच साल बनाये रखने की आवश्यकता क्यों होगी ? फिर तात्कालिक रूप से इसकी व्यवस्था किसी एनी संस्था से करवाई जा सकती है.

अगर केंद्र सरकार इससे सम्बंधित बिल लाती है तो इसे पहले लोकसभा और बाद में राज्यसभा से पारित कराना होगा.  इसे लागू कराने के लिए संसद से पारित करवाने के बाद केंद्र सरकार को कम से कम 15 राज्यों की विधानसभाओं से इस प्रस्ताव को अनुमोदित कराना होगा . इसमें कई क्षेत्रीय दलों की वर्तमान सरकारों से सहयोग लेने की जरूरत पड़ेगी.

पहले भी मांग उठी थी ? 

उल्लेखनीय है कि भरता के चुनाव आयोग ने 1983 में सुझाव दिया था कि ऐसी प्रणाली पर काम किया जाना चाहिए जिसमें सभी चुनाव एक साथ करा लिए जाएँ । न्यायमूर्ति बी पी जीवन रेड्डी की अध्यक्षता वाले विधि आयोग ने मई 1999 में अपनी 170वीं रिपोर्ट में कहा था कि “हमें उस स्थिति में वापस जाना चाहिए जहां लोकसभा और सभी विधानसभाओं के चुनाव एक साथ होते हैं”।

इसके बाद 2003 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भी कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के सामने यह मुद्दा उठाया था। शुरुआत में वह इसके लिए तैयार थीं लेकिन यह विचार आगे नहीं बढ़ सका क्योंकि 2004 में वाजपेयी की सरकार चली गई .

इसके बाद 2010 में, भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने भी इस प्रस्ताव को लेकर तत्कालीन प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह से मुलाकात की थी. उन्होंने अपने ब्लॉग में लिखा था कि  “मैंने उन दोनों (प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी) को उस प्रस्ताव के प्रति सकारात्मक पाया , जिसकी मैं काफी समय से वकालत कर रहा था. निश्चित विधानसभाओं का कार्यकाल और साथ-साथ लोकसभा और विधानसभा चुनाव।” उन्होंने कहा था कि देश में हर दूसरे साल एक “मिनी-आम चुनाव” होता है. “यह हमारी केंद्र और राज्य सरकारों या हमारी राजनीति के स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं है।”

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