कर्णाटक चुनाव में कांग्रेस क्यों जीती और भाजपा क्यों हारी ?

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सुभाष चौधरी /The Public World

नई दिल्ली : कर्णाटक चुनाव प्रचार के दौरान कांग्रेस पार्टी,  भारतीय जनता पार्टी और  जनता दल एस के नेताओं द्वारा उठाए गए मुद्दों एवं चुनाव परिणाम के आंकड़े का विश्लेषण करने से यह स्पष्ट होता है कि इस विधानसभा चुनाव में कई महत्वपूर्ण फैक्टर्स छाये रहे .  दूसरी तरफ दक्षिण भारत में भाजपा के लिए प्रवेश द्वार बने कर्नाटक राज्य की जनता ने अपना फैसला सुनाते हुए महत्वपूर्ण  संकेत दिए हैं. उत्तर भारत के राज्यों की तरह दक्षिण भारत में खासकर कर्नाटक जैसे राज्य में फूहड़ राजनीतिक हथकंडे नहीं चलेंगे.  यानी काम करना होगा. रोड शो का ड्रामा भी मतदाताओं के लिए एक मनोरंजक घटना के समान है जबकि लाभार्थियों से अपने प्रति कृतज्ञता जाहिर करवाने की कोशिश भी हमेशा कामयाब नहीं होगी.  या यूं कहें कि लाभार्थियों को केंद्र सरकार की योजनाओं का वायदे के अनुरूप लाभ नहीं मिल पाने से उनमें  भाजपा के प्रति नाराजगी घर करने लगी. 

कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे इसी प्रदेश से आते हैं और लगातार सात बार विधानसभा चुनाव जीते जबकि लोकसभा चुनाव में भी उन्होंने बाजी मारी है.  ऐसे में उनका इस प्रदेश से होना भी कांग्रेस के पक्ष में गया जबकि पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा का असर भी देखने को मिला.  उल्लेखनीय है कि भारत जोड़ो यात्रा के दौरान राहुल गांधी कर्नाटक के 7 जिले में 20 से 21 दिनों तक रुके थे जहां अलग-अलग प्रकार की गतिविधियां आयोजित की गई थी और समाज के विभिन्न वर्गों से उनकी मुलाकात है वह बैठकों का दौर भी चला था. इन 7 जिलों में 48 सीटें हैं जिन्मने से कांग्रेस ने इस बार 32 सीटें अपने नाम कर लिया . कांग्रेस पार्टी की महासचिव प्रियंका गांधी ने भी यहां ताबड़तोड़ सभाएं की और उन्होंने सीधे प्रधानमंत्री को अपने निशाने पर रखा.  उनका प्रधानमंत्री पर तार्किक और तथ्यात्मक हमला भी कामयाब हुआ लगता है. 

 

अगर बात की जय कांग्रेस पार्टी में कई वर्षों से चल रही आंतरिक कलह की तो विधानसभा चुनाव के दौरान सिद्धारमैया गुट एवं कर्नाटक प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष डी के शिवकुमार गुट के बीच कांग्रेस नेतृत्व काफी हद तक संतुलन बनाए रखने में कामयाब रहा. इससे प्रदेश में कांग्रेस की गुटबाजी का नकारात्मक असर  इस चुनाव में देखने को नहीं मिला.  दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी में पिछले कई वर्षों से पूर्व मुख्यमंत्री वी एस येदुरप्पा,  जगदीश शेट्टार जो कुछ दिनों पहले कांग्रेस में चले गए, मुख्यमंत्री बोम्मई , भाजपा प्रदेश अध्यक्ष नलिन कुमार सहित कुछ केंद्रीय मंत्रियों के गुट  इस कदर आपसी कलह में में व्यस्त थे कि भाजपा सरकार पर लगने वाले आरोप और गहराते चले गये. भारतीय जनता पार्टी नेतृत्व ने इसका संज्ञान नहीं लिया और वर्तमान मुख्यमंत्री को संरक्षण देते रहे जबकि  येदुरप्पा जैसे प्रमुख नेता को रणनीतिक तरीके से दरकिनार किया जाता रहा.  पार्टी अपने परम्परागत मतदाताओं से दूर हटती गई. येदुरप्पा विधानसभा चुनाव में अपेक्षाकृत कम सक्रिय दिखे. 

 

 भाजपा के उलट कांग्रेस पार्टी ने  क्षेत्रीय नेताओं के बीच तालमेल दिखाया और चुनाव प्रचार को  प्रभावी स्वरूप देने में कामयाब रही. मल्लिकार्जुन खरगे स्वयं को धरतीपुत्र बताकर कर्नाटक के मतदाताओं को लुभाते रहे तो दूसरी तरफ प्रियंका गांधी और राहुल गांधी भारतीय जनता पार्टी के सर्वोच्च नेता व प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर सीधा हमला बोलते रहे और प्रदेश की बोम्मई  सरकार के कुकृत्य के लिए उनको ही कटघरे में खड़े करते रहे. कांग्रेस पार्टी के मिस्टर 40 परसेंट के आरोप का जवाब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस को 85 परसेंट कमीशन वाली पार्टी कह कर देने की कोशिश तो की लेकिन ऐसा लगता है जनता ने उनके इस जुमले को पूरी तरह नकार दिया. भाजपा शासनकाल में कथित व्याप्त भ्रष्टाचार प्रमुख मुद्दा बना रहा. कर्नाटक के मतदाता प्रधानमंत्री के इस झांसे में नहीं आए और स्पष्ट जनादेश देने का फैसला लिया.

 

 इनके अलावा कांग्रेस पार्टी ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में बजरंग दल को प्रतिबंधित करने का वायदा कर प्रदेश के मुस्लिम मतदाताओं को अपने पक्ष में गोलबंद होने का एक ऐसा मुद्दा दे दिया जिसकी काट भाजपा नेतृत्व नहीं ढूँढ़ पाए इसके बावजूद की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने चुनावी भाषणों का आरंभ जय बजरंगबली से करते रहे. उन्होंने कांग्रेस नेतृत्व पर पहले भगवान श्रीराम को ताले में बंद करने का आरोप लगाया तो  कर्नाटक विधानसभा चुनाव में बजरंगबली को ताले में बंद करने जैसी भावनात्मक आरोप लगा कर हिंदू मतदाताओं को अपने पक्ष में गोलबंद  करने की कोशिश की.  लेकिन उनकी यह कोशिश चुनावी परिणाम से पूरी तरह विफल हुआ लगता है. प्रधानमंत्री दो समुदायों के बीच भावनात्मक विभेद पैदा करने वाले मुद्दों को उछाल कर भी चुनावी हवा को अपने पक्ष में नहीं कर पाए.  जाहिर है भारतीय जनता पार्टी उत्तर भारत या फिर उत्तर पूर्व भारत के राज्यों में जिस हिंदूवादी रणनीति के साथ चुनावी मैदान में उतरती है उसका प्रयोग इस बार दक्षिण भारतीय कर्नाटक राज्य में असर नहीं कर पाया.

कांग्रेस पार्ट्री के नेताओं ने भावनात्मक कार्ड भी खूब खेला. कभी नंदिनी वर्सेस अमूल की बात की तो कभी विजया बैंक के मर्जेर का मुद्दा भी उछाला. इसका माकूल जवाब न तो भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व के पास था और न ही क्षेत्रीय नेतृत्व के पास.

 

चुनावी परिणाम के विश्लेषण से यह बात भी स्पष्ट हो गई है कि कांग्रेस पार्टी को बजरंग दल पर प्रतिबंध लगाने की घोषणा करने का सीधा फायदा मिला.  हालांकि बाद में कांग्रेस नेतृत्व ने इस पर सफाई देनी शुरू कर दी थी . बावजूद इसके कर्नाटक के मुस्लिम मतदाता इस वायदे के कारण ही गोलबंद होकर कांग्रेस के पक्ष में खड़े दिखे. कई क्षेत्रों में मुस्लिम मतदाताओं ने रणनीतिक तरीके से वोट किया. जहां कांग्रेस पार्टी के प्रत्याशी भाजपा को हराने की स्थिति में दिखे वहां कांग्रेस को वोट किया तो जहां जनता दल एस के उम्मीदवार भाजपा को हराने के कगार पर दिखे वहां इस समुदाय के मतदाताओं ने कुमार स्वामी की पार्टी को समर्थन दिया.  यह बड़ा कारण रहा कर्नाटक चुनाव के आज के नतीजे का. यानी कांग्रेस पार्टी को सत्ता की चाबी सौंपने का. 

 

कांग्रेस पार्टी की राष्ट्रीय महासचिव प्रियंका गांधी अब तक के सभी चुनाव से इतर कर्नाटक के चुनाव में कुछ ज्यादा ही धारदार और तथ्यात्मक बातें करती दिखी.  उन्होंने प्रधानमंत्री द्वारा स्वयं पर कथित गालियों की बौछार की गिनती कराने पर मतदाताओं को  प्रभावित करने वाले तर्क दिए.  प्रियंका गांधी का बारंबार यह कहना कि प्रधानमंत्री अपने भाषण में स्वयं पर हमले,  गालियों की बौछारें गिणाते हैं जबकि कर्नाटक की जनता की समस्याएं या फिर उनके निदान नहीं गिनाते. उनका यह कह कर कटाक्ष करना कि पीएम के पास कर्णाटक की जनता की समस्या गिनने की फुर्सत नहीं है लोगों को अपील करने वाला रहा.  गुजरात सहित देश के अन्य राज्यों के चुनाव या फिर लोकसभा चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री स्वयं पर हमले को भुनाने में जिस कदर कामयाब रहे हैं उसका नजारा कर्नाटक में देखने को नहीं मिला. यहां तक कि बेंगलुरु जैसे क्षेत्र में लगभग 26 किलोमीटर की रोड शो यात्रा भी असरदार नहीं रही.  क्योंकि बेंगलुरु में सबसे कम मतदान देखने को मिला.  यानी वोटर वोट डालने घरों से बाहर ही नहीं निकले. कहना ना होगा कि कर्नाटक चुनाव में मोदी मैजिक नहीं चला. 

 

कर्नाटक चुनाव ने यह भी साफ कर दिया कि देश में व्याप्त बेरोजगारी.  कर्नाटक में भ्रष्टाचार के लगे गंभीर आरोप,  राष्ट्रव्यापी महंगाई  जैसे मुद्दे मतदाताओं के मानस पटल पर छाए रहे.  दूसरी तरफ पिछले चुनाव में  केंद्र सरकार की विभिन्न योजनाओं के  लाभार्थियों का बड़ा सेक्शन भी इस बार भाजपा का साथ छोड़ गये. यह उनके लिए चौंकाने वाली बात रही है क्योंकि भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व अक्सर प्रदेश के उन सभी लाभार्थियों तक पहुंचने की कोशिश करता है और उसे याद दिलाई जाती है कि उनके जीवन के उत्थान के लिए नरेंद्र मोदी सरकार ने पिछले 10 वर्षों में क्या कुछ उन्हें दिया है. उनका यह राजनीतिक फार्मूला भी धरा रह गया . 

 

अगर बात की जाय आने वाले लोकसभा चुनाव 2024 की तो अभी यह दूर की कौड़ी है. हाँ आने वाले तीन चार राज्यों के विधानसभा चुनावों के मद्देनजर दक्षिण भारत में भाजपा के लिए प्रवेश द्वार बने कर्नाटक राज्य की जनता ने अपना फैसला सुनाते हुए  कई प्रमुख संकेत दिए हैं. उत्तर भारत के राज्यों की तरह दक्षिण भारत में खासकर कर्नाटक जैसे राज्य में फूहड़ राजनीतिक हथकंडे नहीं चलेंगे.  यानी सरकारों को काम करना होगा. रोड शो का ड्रामा भी मतदाताओं के लिए एक मनोरंजक घटना के समान है जबकि लाभार्थियों से अपने प्रति कृतज्ञता जाहिर करवाने की कोशिश भी हमेशा कामयाब नहीं होगी. या यूं कहें कि  लाभार्थियों को केंद्र सरकार की योजनाओं का वायदे के अनुरूप लाभ नहीं मिल पा रहा है इसलिए उनमें केंद्र सरकार और प्रदेश में बैठी भाजपा सरकारों के प्रति नाराजगी घर करने लगी है . 

 

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