ओंकारेश्वर मिश्र
मशहूर शायर निदा फाजली ने कहा है ” वो सूफ़ी का क़ौल हो या पंडित का ज्ञान …….जितनी बीते आप पर उतना ही सच मान” ।। लम्बा समय हो गया लॉक डाउन को लगे हुए, हर इंसान की ज़िंदगी एक चारदीवारी के अंदर सिमट कर रह गयी है। आर्थिक हालात बिगड़ने लगे हैं, नौकरियाँ छूटने लगी हैं और देखते ही देखते राष्ट्र निर्माण में जिनके श्रम और पशीने की आहुति की चर्चा होती थी उनका धैर्य जवाब देने लगा है. इसी बीच इनकी मदद के लिए बड़ी- बड़ी बातें और दावे किये जाने लगे हैं और दावा भी ऐसा की रातों रात एक मेहनतकश मज़दूर, अभिजात्य या आत्म निर्भर बन जाएगा ।
लेकिन घोषणाएँ तो सिर्फ़ घोषणाएँ ही होती हैं . उनका असलियत से कोई सरोकार नहीं होता। किसी ने 10 लाख लोगों के भोजन की व्यस्था प्रतिदिन कर दी तो किसी संगठन ने 5 करोड़ लोगों की मदद करने का फ़रमान जारी कर दिया। हक़ीक़त से परे घोषणाओं का अंबार लगने लगा. सहसा ऐसा लगा कि राम राज्य आ गया है. अब कोई भूखा नहीं सोएगा, पर हक़ीक़त में कुछ और ही दिखने लगा. सामान्य व्यक्ति या एक मेहनतकश मज़दूर का धैर्य जवाब देने लगा. उसे सारे वादे खोखले दिखायी पड़ने लगे. वह असहाय महसूस करने लगा. पेट की आग उसे सड़क पर आने को मजबूर करने लगी , और वह हताश ह्रदय के साथ पैदल ही निकल पड़ा अपने गाँव की तरफ़.
चारों ओर सड़कों पर मज़दूरों का सैलाब दिखने लगा। सरकारी तंत्र की पोल खुलने लगी. व्यवस्थाएँ लाचार दिखने लगीं और अब मोर्चा संभाला राजनीतिक दलों ने. एक दूसरे पर आरोप- प्रत्यारोप शुरू कर दिया. आँकड़े पेश होने लगे और उन्हीं आकंड़ों में मज़दूर की दशा सुधरने लगी. चमचमाती हुयी विदेशी गाडियों से टीवी चैनलों में पहुँच कर वातानुकूलित कमरे में लीनन के कुर्ता – पायजामा के उपर नेहरू या मोदी जैकेट पहने तमाम दलो के नेता मज़दूरों की योजनाओं के आँकड़े देकर उनके अच्छे दिन होने का एहसास कराने लगे. लेकिन बेचारे उस मज़दूर की दशा बद से बदतर होने लगी, मज़दूर वहीँ का वहीँ रह गया। उसकी सुधि लेने या उसके दुख को साझा करने के बजाए मज़दूरों के फ़ोटो का विश्लेषण शुरू हो गया.
यह फ़ोटो नक़ली है तो वह असली है. कुछ बुद्धिजीवी लोगो ने इन्हें भारतीय मज़दूरों और इंसानों से इतर रोहिंग्या मुसलमानों की फ़ोटो सिद्ध करना प्रारम्भ कर दिया. कुछ ने इन्हें कम्युनिस्टों का राजनीतिक मोहरा या उनकी चाल बताना शुरू कर दिया। कुछ ने यहाँ तक कह दिया इसकी ज़िम्मेदार सबसे पुरानी पार्टी है। दुर्भाग्यवश सबने अपनी ज़िम्मेदारियों से बचने का रास्ता निकालना प्रारम्भ कर दिया।
राजनिति का स्तर इतना नीचे गिर जाएगा कल्पना से परे था। मज़दूरों को वर्गों, जातियों व क्षेत्रों में बाट कर देखा जाएगा. उनको प्रवासी की संज्ञा देकर उनकी स्थिति का चित्रण और उसकी व्याख्या बंद वातानुकूलित कमरों में की जाने लगी। इससे घृणित या कुत्सित मानसिकता और क्या हो सकती है ?
शर्मसार है हिंदुस्तान इस 21 वीं सदी के तेज़ी से बदलते हुए भारत को देखकर जहाँ एक मज़दूर या सामान्य नागरिक विपरीत परिस्थितियों को झेलते हुए भूखा रहकर सिर्फ़ अपने गाँव जाने का गुहार लगा रहा है और विडम्बना देखिए उसकी स्थिति, दशा, सच्चाई या हक़ीक़त का बयान कोई और कर रहा है। महामारी कभी भी किसी भी देश में आ सकती है. पहले भी आती रही है. उस पर किसी का नियंत्रण नहीं हो सकता है. पर उससे लड़ा जा सकता है. जीता जा सकता है. एकजुट होकर, प्रत्येक नागरिक के जीवन को सरल और सुखद बनाया जा सकता है. पर दुर्भाग्य है ऐसे समय पर भी निम्न एवं घटिया स्तर की राजनीति शुरू हो गयी या यूँ कहें तो निम्नतम स्तर पर पहुँच चुकी है।
प्रश्न है कि देश एक है, संविधान एक है, सभी भारतीय हैं तो प्रवासी शब्द के सृजन की ज़रूरत क्यों पड़ गयी। जहाँ से ये मज़दूर पलायन कर रहे हैं उस क्षेत्र के विकास में क्या उनके श्रम का योगदान नहीं है ? क्या उनके वोट से सरकारें नहीं बनती हैं ? क्या उनको रोकने की ज़िम्मेदारी स्थानीय सरकारों की नहीं है ? मजदूरों , मेहनतकश निम्न-मध्यम वर्गीय सभी की हालत आज नाज़ुक मोड़ पर है। अर्थव्यवस्था लड़खड़ाने लगी है और हम कहते हैं देश बदल रहा है. क्या ऐसे ही बदलाव के साथ हम विश्वगुरु या महाशक्ति बन पाएँगे विचारणीय है।