नई दिल्ली। उपराष्ट्रपति एम. वेंकैया नायडू ने कहा कि एक प्रबुद्ध जनमत स्वस्थ लोकतंत्र की आवश्यक शर्त है। उन्होंने जन शिक्षा के लिए मीडिया तथा राजनीतिक दलों की भूमिका को महत्वपूर्ण बताते हुए खेद जताया कि दोनों ही संस्थाओं ने अपनी भूमिका का पूरी तरह से निर्वहन नहीं किया है। उन्होंने कहा कि राजनीतिक दलों को सतत जनसंपर्क के माध्यम से जनचेतना बढ़ानी चाहिए – जनअपेक्षाओं को विधायी कार्य में प्रतिबिंबित करना चाहिए। उन्होंने सतत जनचेतना और जनशिक्षण में मीडिया की भूमिका को महत्वपूर्ण बताया।
उपराष्ट्रपति आज भारत में विधायी निकायों पर दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा श्री अरुण जेटली की स्मृति में आयोजित व्याख्यानमाला का प्रथम व्याख्यान दे रहे थे।
उपराष्ट्रपति ने कहा कि यद्यपि वर्ष 1952 से ही निरंतर चुनावों में मतदाताओं की संख्या में वृद्धि हो रही है, तथापि पुरातनपंथी पहचान आधारित राजनीति से हटकर विकासवादी राजनीति को प्राथमिकता देने के लिए नव जनचेतना की आवश्यकता है। उन्होंने विधायी निकायों तथा जनता के बीच सतत द्विपक्षीय संपर्क और संवाद स्थापित करने के लिए नई सूचना प्रौद्योगिकी का कारगर प्रयोग करने का सुझाव भी दिया।
संविधान संशोधन के लिए संसद में निहित शक्तियों का उल्लेख करते हुए उपराष्ट्रपति ने कहा कि विधायिका और न्यायपालिका के बीच लंबे असहज विमर्श के बाद वर्ष 1973 में केशवानंद भारती केस में उच्चतम न्यायालय की पूर्ण पीठ ने संविधान के मूल चरित्र को अक्षुण्ण रखे जाने के पक्ष में अपना फैसला सुनाया था। यद्यपि उच्चतम न्यायालय ने मूल चरित्र को परिभाषित नहीं किया था, लेकिन डीडी बसु जैसे संविधान विशेषज्ञों ने संविधान के 20 ऐसे तत्व इंगित किये थे जो उसके मूल चरित्र को परिभाषित करते हैं।
कुछ वर्गों द्वारा राष्ट्रपति प्रणाली की वकालत किये जाने का उल्लेख करते हुए उपराष्ट्रपति ने कहा कि जरूरी यह है कि सभी भागीदार संसदीय निकायों को सुचारु रूप से सफलतापूर्वक चलने दें और सुनिश्चित करें कि इसके लाभ आम जनता तक पहुंचे।
उपराष्ट्रपति ने कहा कि लोकतांत्रिक प्रणाली की सफलता के लिए चार तत्व आवश्यक हैं – बहुमत का शासन, अल्पमत के अधिकारों का संरक्षण, संवैधानिक प्रशासन तथा सौहार्दपूर्ण गंभीर विचार-विमर्श। उन्होंने कहा कि विधायी निकायों पर जनता का विश्वास तभी बढ़ता है जब ये संस्थाएं उनकी अपेक्षाओं के प्रति उत्तरदायी होती हैं। जनता जनप्रतिनिधियों के आचरण को भी देखती है।
चुनाव की First Past The Post प्रणाली की सीमाओं पर चर्चा करते हुए उपराष्ट्रपति ने कहा कि इस प्रणाली के तहत 50% से बहुत कम मत पाने वाले भी चुन लिए जाते हैं जिससे संसदीय प्रशासन के प्रतिनिधि चरित्र पर प्रश्नचिन्ह लगता रहा है। उपराष्ट्रपति ने संतोष व्यक्त किया कि 17वीं लोकसभा के लिए चुने गये काफी सदस्यों को 50% से अधिक मत प्राप्त हुए हैं।
संसदीय लोकतंत्र के सामने मौजूद चुनौतियों का उल्लेख करते हुए उपराष्ट्रपति ने सदन की घटती बैठकों, बढ़ते व्यवधानों, बहस के गिरते स्तर, आपराधिक रिकॉर्ड वाले जन प्रतिनिधि, महिलाओं के सीमित प्रतिनिधित्व, चुनाव में धनबल और बाहुबल के बढ़ते इस्तेमाल, राजनीतिक दलों में आतंरिक लोकतंत्र की कमी पर चिंता व्यक्त की।
विधायी निकायों को कारगर बनाने के लिए उपराष्ट्रपति ने कुछ सुझाव दिये, जैसे कि
– विधेयक पारित होने से पहले और बाद में सामाजिक, आर्थिक, प्रशासनिक और पर्यावरणीय दृष्टि से उसके प्रभावों का अध्ययन, संसदीय समितियों का कार्यकाल वर्तमान एक साल से बढ़ाकर और दीर्घकालीन करना, महिला आरक्षण विधेयक पर आगे कार्यवाही करना, संसद और राज्य विधानसभाओं की प्रति वर्ष बैठकों की संख्या नियत करना और उसका पालन सुनिश्चित करना, सदस्यों द्वारा सदन के नियमों का पालन करना तथा राजनीतिक दलों द्वारा सदस्यों के लिए आचार संहिता लागू करना, सदन में उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए राजनीतिक दलों द्वारा सदस्यों की रोस्टर प्रणाली लागू करना जिससे दल के कम से कम 25% सदस्य नियमित रूप से सदन में उपस्थित रहें, दल बदल कानून का पुनरावलोकन किया जाना तथा पीठासीन अधिकारी द्वारा नियत समय में ऐसे मामलों का निपटारा किया जाना, साथ ही दलों की व्हिप प्रणाली की भी समीक्षा हो जिससे सदस्यों का अपने दलों की नीति के विरुद्ध तर्कपूर्ण विरोध का अधिकार संरक्षित रहे और सरकार की स्थिरता भी अक्षुण्ण रहे। उपराष्ट्रपति ने कहा कि सदस्यों के आपराधिक मामलों को समय सीमा में निपटाने के लिए अलग कोर्ट या ट्रिब्यूनल गठित हों तथा अनैतिक आचरण करने पर सदस्यों के विरूद्ध प्रभावी और तुरंत कार्यवाही होनी चाहिए। उपराष्ट्रपति ने संसद और विधानसभाओं के चुनाव साथ कराये जाने पर व्यापक विचार-विमर्श के आधार पर सहमति बनाने की सलाह दी। धन-बल को रोकने के लिए उन्होंने चुनावों की सरकारी फंडिंग का समर्थन किया।
स्वाधीन भारत के गहरे लोकतांत्रिक संस्कारों की चर्चा करते हुए उपराष्ट्रपति ने कहा कि 1952 के पहले आम चुनावों से ही भारत के तथाकथित गरीब और अशिक्षित मतदाताओं ने समय समय पर अपने मताधिकार द्वारा अपने विवेक का परिचय दिया है जो देश में हुए बड़े परिवर्तनों का कारण बना। 1952 के आम चुनावों से ही मतदाताओं की संख्या में क्रमानुसार वृद्धि हुई है। कई अवसरों पर जैसे वर्ष 1977 में मतदाताओं ने राजनीतिक वर्ग को सबक भी सिखाया।
इस संदर्भ में श्री अरुण जेटली को उद्धृत करते हुए उपराष्ट्रपति ने कहा कि हमारी संसदीय व्यवस्था के विषय में अरुण जी का मानना था कि विगत 60-65 वर्षों में हम एक बड़ी शक्ति के रूप में विश्व पटल पर उभरे हैं। हमारे राष्ट्रवादी संस्कार, हमारे सांस्कृतिक संस्कार, हमारी संस्कृति, हम भारतवासियों की देशनिष्ठा के प्रति आस्था बढ़ती है। ये हमारे संसदीय लोकतंत्र के कारण हुआ, हमारी तमाम विविधताओं और वैचारिक विविधताओं के बावजूद जब राष्ट्र का प्रश्न आता है हम सब एक स्वर में समर्थन करते हैं।
श्री नायडू ने कहा कि संसदीय प्रणाली समाज के लोकतांत्रिक मूल्यों पर पनपती है। ये लोकतांत्रिक मूल्य विधाई निकायों के भीतर नहीं, बल्कि वृहत्तर समाज में आम जनता में पैदा होते हैं और जड़ें पाते हैं। जब तक इन जड़ों को पोषण नहीं मिलेगा तब तक संसद और प्रदेश विधानसभाओं के रूप में लोकतंत्र की शाखाएं भी कमजोर रहेंगी।
लोकतांत्रिक चुनावी प्रक्रिया पर टिप्पणी करते हुए उपराष्ट्रपति ने कहा ‘माना जाता है कि जाति, संप्रदाय, क्षेत्रवाद चुनावों को प्रभावित करते हैं। कुछ समाजशास्त्रीय अध्ययन मानते हैं कि लोकतंत्र जातीय या अन्य भेदभावों की जड़ें और मजबूत करता है, जबकि ऐसे भी साक्ष्य हैं जो इसके विपरीत यह साबित करते हैं कि जाति आदि भेदभावों में कमी आई है।’
इस अवसर पर सदन और सरकार में स्वर्गीय श्री अरुण जेटली जी के योगदान का स्मरण करते हुए उपराष्ट्रपति ने कहा कि अरुण जी ने सरकार के कई विभाग कुशलता से संभाले लेकिन सफलतापूर्वक जीएसटी लागू करना उनका सबसे स्मरणीय योगदान रहा। भ्रष्टाचार के विरुद्ध वे कई प्रभावी विधेयक लाए। एक सांसद के रूप में उनके योगदान के लिए उन्हें 2010 का सर्वश्रेष्ठ सांसद का सम्मान मिला।
उन्होंने कहा कि अपने लंबे और यशस्वी राजनैतिक जीवन में अरुण जी ने एक ऐसी तत्कालीन प्रभावी विचारधारा, जो दृढ़ संस्थागत रूप ले चुकी थी, उस को मुखर वैचारिक चुनौती दी जिससे देश में विचारधारा के स्तर पर व्याप्त असुंतलन को दूर करने में सहायता मिली।
राष्ट्रवाद और भारतीय संस्कृति पर आधारित इस वैकल्पिक विचारधारा को स्थापित करने के लिए जो ऊर्जा, क्षमता, तथ्य और तर्कशक्ति तथा संवाद कौशल चाहिए था, वह श्री जेटली के पास सहज ही था।
उन्होंने धर्मनिरपेक्षता और राष्ट्रवाद की अवधारणा की जैसी व्याख्या की, उससे ये दोनों वैचारिक अवधारणाएं राष्ट्रीय एकता के लिए एक दूसरे की पूरक बन गईं।
उन्होंने 2009-14 तक राज्य सभा में नेता प्रतिपक्ष की भूमिका प्रभावी रूप से निभाई। 2014 से 2019 तक सदन के नेता के रूप में उन्होंने कई महत्वपूर्ण विधेयकों को पारित कराने में स्मरणीय योगदान दिया। उपराष्ट्रपति ने कहा कि सदन में व्यवधान की स्थिति में अरुण जी सहज ही सर्वमान्य समाधान सुझाव देते थे।