ओंकारेश्वर मिश्र
भारत एक लोकतांत्रिक देश है सभी को अभिव्यक्ति की आज़ादी है. वैश्विक महामारी की घोषणा के बाद कुछ लोग हरकत मे आये अपनी ज़िम्मेदारियों को समझा उसका निर्वहन प्रारम्भ कर दिया. वहीँ कुछ लोग लिखते रहे, कुछ फ़ोटो खींचते रहे, कुछ टीआरपी बढ़ाते रहे, कुछ लोग जाति विशेष को ही सारी महामारी का कारण बताने में व्यस्त रहे. राजनीतिक दलों ने तो एक दूसरे पर अपनी ज़िम्मेदारीयों को आसानी से स्थानान्तरित करना प्रारम्भ कर दिया. वहीँ कुछ राज्य एक – दूसरे राज्यों पर अपनी ज़िम्मेदारी शिफ्ट करते रहे. कुछ को सिर्फ़ दिल्ली व महाराष्ट्र में परेशान मज़दूर दिखे जबकि उनकी नजरों में शेष राज्य बिल्कुल ठीक थे. इससे इतर कुछ लोग यह बताने में भी व्यस्त रहे कि मैं सबसे बड़ा राष्ट्र भक्त हूँ।
इस आपाधापी के बीच वह व्यक्ति जिनके श्रम की चर्चा , जिनके पसीने की प्रशंसा राष्ट्र निर्माण से लेकर हर क्षेत्र में की जाती है वह लड़खड़ाने लगा. उनकी हालत बिगड़ती चली गई. जिनके लिए लोग बड़ी बड़ी बातें कर रहे थे. जिनके लिए देश का संसाधन न्योछावर करने की कसमें खाई जाती रही थीं वह निःसहाय अवस्था में खड़ा दिखने लगा. उसे नैराशय ने घेर लिया. उसके समझ नहीं आ रहा क्या करे, कहाँ जाए, किससे मदद माँगे और आखिर कब तक ?
नियति ने उन्हें ऐसे मुहाने पर खड़ा कर दिया कि सब कुछ अनिश्चित लगने लगा। पुलिस के डंडे खाने के बावजूद भूखे प्यासे ही निकल पड़ा वहाँ के लिए जहाँ से कभी सब कुछ छोड़कर बेहतर जीवन की तलाश में आ गया था. सोचिए उनकी स्थिति कैसी है ? वह अभी भी मात्र वोट बैंक है. मज़दूर है और रैलियों की भीड़ की तरह शामिल होने वाला राजनीतिक साधन है।
माथे पर माटी की आस में चले जा रहे हैं इस बात से बेख़बर,कि गाँव पहुँचेंगे भी या नहीं. त्रासदी की तस्वीरें मन को कचोट रही हैं,मज़दूर कब तक मजबूर? अपने ही देश में अमीर इंडिया और गरीब भारत का बँटवारा देख कर सिहरन सी होती है. रोज होती दुर्घटनाएं, असहनीय पीड़ा, अमानवीय हालात। कामगार भाई-बहन और उनके बच्चे संकट के दौर से गुजर रहे हैं।
प्रश्न है कि ये मज़दूर क्या शक्तिमान की तरह उड़ कर एक जगह से दूसरे जगह पहुँच जा रहे हैं ? कोई कहता है पैदल या मोटरसाइकिल से चलने की ज़रूरत नहीं है, लेकिन ये मज़दूर है कि मानते ही नहीं. चलते चले जा रहे हैं. शायद बहरे हो गये हैं या इन्हें भूख और लाचारी ने ज़िद्दी बना दिया है।
सवाल है कि जो लाचार दिखाई दे रहे हैं क्या वह दूसरों पर निर्भर थे या जो लोग यह बता रहे हैं वह उन पर निर्भर हैं. इसमें कौन किस पर निर्भर है यह समझ कर भी समझना मुश्किल हो रहा है.
मज़दूर को मज़दूरी नहीं मिली. मालिक कहता है व्यवसाय बंद हो गया. आमदनी नहीं वेतन कहाँ से दें ? सरकारें कहती हैं मैंने सबका ध्यान रखा है. तो ये रेल के पटरियों पर मरने वाले, सड़क पर कुचल कर जान देने वाले या भूखे मरने वाले आखिर किस गलती की सजा पा रहे हैं. क्या ये किसी अन्य देश के नागरिक हैं या फिर दो जून की रोटी के लिए भारत के निर्माण में हर क्षण स्वयं को खपा देने वाले बेवस, लाचार, बदकिस्मत और मेहनतकश भारतीय मजदूर ? यह किस प्रकार की आत्मनिर्भरता है समझना कठिन हो रहा है.
राजनीतिक क्षितिज पर आत्मनिर्भर भारत की बात तैरने लगी है. लेकिन जो आत्मनिर्भर होकर इस देश में जीने के आदि हो गए थे उन्हें अव्यवस्था ने आज निसहाय बना दिया है.
आत्मनिर्भरता की परिभाषा क्या है समझ नहीं आ रहा है. बचपन से सुनता आ रहा हूँ अपने पैरों पर खड़े होना ही आत्मनिर्भरता है. शायद इस देश की मिटटी में पीला बढे बहुतों को भी उनके पूर्वजों ने यही बताया होगा. लेकिन एक महामारी, आत्मनिर्भर लोगों को इस कदर लाचार बना कर छोड़ देगी इसकी शायद कभी किसी ने कल्पना नहीं की होगी. क्योंकि आत्मनिर्भर लोग हमेशा अपनी शर्तों पर जीने के आदि होते हैं लेकिन आब के हालात जुदा हैं. ये आत्मनिर्भर लाखों लोग शायद आत्मनिर्भर नहीं थे. स्पष्ट है, हमेशा दूसरों की शर्तों पर इन्हें जीने को मजबूर किया जाता रहा.
परिस्थिति ने आज नौकरी की परिभाषा को समझने के लिए पुन: विवश कर दिया है . जो आत्मनिर्भर थे वो सभी आज लाचार हैं. शायद इन लोगों ने नौकरी को ही आत्मनिर्भर होना समझ लिया था. परिस्थितियों ने ना जाने कितनों को घुटने पर ला दिया.
हालात देख कर बरबस कई सवाल मन में कौंधने लगे हैं.. नौकरी या मज़दूरी की परिभाषा क्या अब बदल जाएगी ? क्या नौकरी या मज़दूरी शब्द का वजूद ख़तरे में है ? क्या ये शब्द नेस्तनाबूत हो जाएँगे ? क्या अब देश व दुनिया में सिर्फ़ अभिजात्य या बड़े लोगों का ही वर्ग होगा ? क्या हम अपनी ज़िम्मेदारियों का वास्तविक रूप से निर्वहन कर रहे हैं ? नित नए विभत्स दृश्य देख कर असह्य दुख के आगे वाणी मौन को आत्मसात करने की स्थिति में है. हृदय की पीड़ा सहसा निकल पड़ी…………….