पहली बार इफ्फी के साथ आयोजित हुआ ब्रिक्स फ़िल्म महोत्सव

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इफ्फी के ढांचे के भीतर ब्रिक्स फ़िल्म समारोह को ज्यादा दृश्यता मिल रही है: थंडी डेविड्स, जूरी सदस्य

सिनेमा और फ़िल्म पेशेवरों को एक ही छत के नीचे लाने के लिए फ़िल्म प्रतियोगिताएं महत्वपूर्ण हैं: नीना कोचेल्येवा, जूरी सदस्य

गोवा :   52वें भारतीय अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म महोत्सव (इफ्फी), गोवा में आज एक संवाददाता सम्मेलन में जाने-माने भारतीय फ़िल्म निर्देशक, एडिटर और ब्रिक्स फ़िल्म महोत्सव के जूरी अध्यक्ष राहुल रवैल ने कहा कि, “हम सभी अलग-अलग संस्कृतियों, अलग-अलग पृष्ठभूमियों और अलग-अलग विचार प्रक्रियाओं से आते हैं, इसलिए सर्वसम्मति से इस प्रतियोगिता की सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का चयन करने के लिए साथ आना एक बड़ी उपलब्धि है।”

 

पहली बार ब्रिक्स फ़िल्म महोत्सव को 20-28 नवंबर, 2021 के दौरान गोवा में आयोजित होने वाले इफ्फी महोत्सव के साथ-साथ आयोजित किया गया था। ये ब्रिक्स फ़िल्म महोत्सव का छठा संस्करण है जिसमें पांच देशों ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका की फ़िल्मों के ख़ास पैकेज को दिखाया गया है।

इस साल इफ्फी दुनिया की पांच प्रमुख उभरती अर्थव्यवस्थाओं और अग्रणी फ़िल्म निर्माता देशों को एक साथ लाया है। इस प्रतिस्पर्धी फ़िल्मोत्सव की जूरी में 5 सदस्य होते हैं, जिनमें से हर ब्रिक्स देश से एक-एक होता है। ये जूरी सदस्य हैं – राहुल रवैल (जूरी चेयरपर्सन) (भारत), मारिया ब्लांक अलसीना दा मेंदोंसा (ब्राजील), थंडी डेविड्स (दक्षिण अफ्रीका), नीना कोचेल्येवा (रूस) और होउ केमिंग (चीन)।

इन जूरी सदस्यों ने लगभग 20 फ़िल्में देखीं और पुरस्कारों की पांच श्रेणियों में सर्वश्रेष्ठ फ़िल्मों का मूल्यांकन किया। इन पुरस्कारों में एक प्रमाण पत्र और एक स्मृति चिन्ह शामिल होगा। ये श्रेणियां हैं – सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म, सर्वश्रेष्ठ निर्देशक, सर्वश्रेष्ठ अभिनेता (पुरुष), सर्वश्रेष्ठ अभिनेता (महिला) और जूरी मेंशन अवॉर्ड।

इफ्फी-52 में आयोजित प्रेस कॉन्फ्रेंस में राहुल रवैल, थंडी डेविड्स और नीना कोचेल्येवा शामिल हुए।

ब्रिक्स फ़िल्म महोत्सव का पुरस्कार समारोह इफ्फी-52 के अंतिम दिन यानी 28 नवंबर, 2021 को समापन समारोह के दौरान होगा।

ब्राजील की प्रख्यात निर्माता और जूरी सदस्य थंडी डेविड्स ने सहमति जताते हुए कहा कि, “ये हम सभी के लिए एक असाधारण सांस्कृतिक यात्रा रही है, जिसमें हम विभिन्न संस्कृतियों के संपर्क में आए हैं और इनकी सारी विविधता को देखा है। हमने इन फ़िल्मों से, और जो आवाजें सुनी उनसे बहुत कुछ सीखा।”

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डेविड्स ने कहा कि इस प्रकार के फ़िल्मोत्सवों को और फलने-फूलने, व अपनी खुद की इकाई बनने की आवश्यकता है। उन्होंने कहा, “ये जरूरी है कि जिन फ़िल्मों को हम बनाते हैं उन्हें बुलंद करें, और अपनी खुद की आंखों से उन आवाज़ों को सुने और देखें, न कि दूसरों के जरिए। इससे पहले मैंने रूसी दृष्टिकोण से द्वितीय विश्व युद्ध की कोई फ़िल्म नहीं देखी थी, इसलिए ये मेरे लिए बहुत ही रोचक और तरोताज़ा करने वाली थी।”

एक अन्य जूरी सदस्य, नीना कोचेल्येवा जो रूस की वरिष्ठ शोधकर्ता और फैकल्टी भी हैं, उन्होंने कहा कि इस महोत्सव में प्रत्येक देश की फ़िल्मों का बहुत अच्छा चयन किया गया था। हर फ़िल्म ने अपनी संस्कृति, भाषा और मायनों का प्रतिनिधित्व किया।

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उन्होंने बताया कि ब्रिक्स फ़िल्म महोत्सव के पिछले संस्करण में रूसियों ने एक विशेष कार्यक्रम आयोजित किया था जिसका शीर्षक था “ब्रिक्स देशों के सिनेमाओं का हॉलीवुड का विकल्प”। कोचेल्येवा ने कहा, “हम अपना विज़न दुनिया के समक्ष लाते हैं और इसे विकसित करने का प्रयास करते हैं क्योंकि फ़िल्म प्रतियोगिताएं न केवल हमारे सिनेमा को फोकस में लाने के लिए महत्वपूर्ण हैं, बल्कि ये पेशेवरों को एक छत के नीचे, एक साथ लेकर आएगी और उन्हें दुनिया के सामने विज़िबल बनाएगी।”

इन देशों में महिला फ़िल्मकारों के केंद्रीय स्थान लेने को लेकर रवैल ने कहा, “हालांकि हम विभिन्न संस्कृतियों के लोग हैं, लेकिन बुनियादी समस्याएं समान हैं। ये फ़िल्में जिन संस्कृतियों से निकल रही थीं वे अलग-अलग हैं। इसमें से बहुत कुछ महिला सशक्तिकरण पर भी था। काश भविष्य में भी महिलाओं द्वारा संचालित फ़िल्मों की राह बनाने के लिए इस तरह की और पहल हों।”

डेविड्स ने कहा, “जब हम महिला फ़िल्मकारों को देखते हैं तो हमें लगता है कि वे अपनी फ़िल्म में महिला आधारित मुद्दों पर ही बात करेंगी। लेकिन, यहां ऐसी फ़िल्में भी थीं जिनका महिलाओं से कोई लेना-देना नहीं था। महत्वपूर्ण बात ये है कि इन महिला आवाजों को सुना जाए। हालांकि इन सभी फ़िल्मों में केंद्रीय विषय ये नहीं है, लेकिन इनमें फीमेल ग़ेज यानी नारी दृष्टि ज़रूर है। बात दरअसल महिलाओं के मुद्दों की नहीं है, बल्कि ये है कि एक महिला दुनिया को अपने नजरिए से कैसे देखती है।”

ओटीटी प्लेटफॉर्म फ़िल्में देखने का एक नया तरीका दे रहे हैं लेकिन बड़े पर्दे पर फ़िल्में देखने का मजा कभी खत्म नहीं होगा। लव स्टोरी और बेताब जैसी हिंदी फ़िल्में बना चुके राहुल रवैल ने इस बात की पुष्टि करते हुए कहा कि, ‘मुझे नहीं लगता कि ओटीटी बड़े पर्दे की जगह कभी लेंगे। ओटीटी दूसरे देशों की फ़िल्में देखने और पुरानी फ़िल्में देखने के लिए बहुत अच्छे मंच जरूर हैं, लेकिन असल में तो फ़िल्मकार ही तय करेंगे कि वे बड़े पर्दे के लिए फ़िल्म बना रहे हैं या सीमित स्पेस के लिए।”

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डेविड्स ने कहा कि इफ्फी-52 में होना उनके लिए बहुत दिलचस्प रहा क्योंकि ब्रिक्स और इफ्फी पहली बार एक साथ आए हैं। इस वजह से ब्रिक्स फ़िल्म समारोह को इफ्फी के ढांचे में ज्यादा दृश्यता मुहैया हुई। उन्होंने उम्मीद जताई कि दर्शकों को भी ये फ़िल्में देखने का अनुभव मिलेगा और दूसरे देशों की विभिन्न संस्कृतियों का अनुभव होगा।

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