-भारत में बहरेपन के बढ़ते मामले चिंताजनक : डॉ. सारिका वर्मा
-नेशनल इनिशिएटिव फॉर सेफ साउंड की आठवीं कॉन्फ्रेंस का हुआ आयोजन
-चिकित्सकों ने ध्वनि प्रदूषण के प्रति समय—समय पर लोगों को जागरूक करने पर दिया बल
-वर्ल्ड हेल्थ आर्गनाइजेशन के तय मानकों से कई गुना अधिक शोर होता है भारत में
गुरुग्राम : इंडियन मेडिकल एसोसिएशन की ओर से गुरुग्राम में नेशनल इनिशिएटिव फॉर सेफ साउंड की आठवीं कॉन्फ्रेंस का आयोजन किया गया. इसमें देश भर से आये ई एन टी एवं चिकित्सा क्षेत्र के अन्य विशेषज्ञों ने प्रदूषण के दुष्प्रभाव और रोकथाम के विषय में अपनेको लेकर सभी चिकित्सकों ने मंथन किया और लोगों को जागरूक किया ।
इस अवसर पर आईएमए गुरुग्राम के अध्यक्ष डॉ. अजय शर्मा, सचिव डॉ. इंद्रमोहन रस्तोगी, आईएमए के वरिष्ठ सदस्य डॉ. एमपी जैन, डॉ. मुनीश प्रभाकर, डॉ.सुरेश वशिष्ठ, डॉ. एनपीएस वर्मा, डॉ. आईपी नांगिया , डॉ वंदना नरूला, डॉ अजय अरोड़ा , ईएनटी एसोसिएशन के हरियाणा प्रदेश सचिव डॉ. भूषण पाटिल,हरियाणा आईएमए के अध्यक्ष डॉ. अजय महाजन, सचिव डॉ. धीरेंद्र सोनी, पूर्व अध्यक्ष डॉ. पुनीता हसीजा,एडवोकेट देवेश पांडा, विजेश खटाना, अमृता पांडा, केरल राज्य के प्रमुख शासन सचिव सेवानिवृत्त विश्वास मेहता आई.ए.एस, मदद फाउंडेशन के सौरभ छाबड़ा और लायंस क्लब के लवलीन सतीजा ने कॉन्फ्रेंस को संबोधित किया. चिकित्सकों ने देश और दुनिया में इस दिशा में हो रहे सुधार और रिसर्च पर भी आवश्यक जानकारियां विस्तार से साझा की ।इस अवसर पर डॉ यशवंत ओ के की किताब “अंडरस्टैंडिंग कैकोफनी” का भी अनावरण किया गयाl
चिकित्सकों ने कहा कि ध्वनि प्रदूषण और इसकी रोकथाम को लेकर लोगों को जागरूक करना काफी आवश्यक हो चुका है। विशेषकर छोटे बच्चों में शुरू से इसके प्रति जागरूकता लाना जरूरी है। भारत में वाहनों में तेज हॉर्न बजाने के चलन, हेडफोन के ज्यादा प्रयोग, समारोहों में तेज ध्वनि में संगीत बजाने की व्यवस्था पर कंट्रोल होना आज के समय में काफी आवश्यक हो चुका है। व्यवहारिक रूप से लोगों को यह सिखाने की जरूरत है कि जिस प्रकार विदेशों में वाहनों के हॉर्न का प्रयोग बिल्कुल नहीं होता है ऐसी ही व्यवस्था के लिए भारत में भी शुरूआत की जाए। मोबाइल फोन और हेडफोन का प्रयोग बच्चों के लिए कम से कम हो ताकि उनके सुनने की क्षमता प्रभावित ना हो। विशेष रूप से वाहन चालकों को तेज ध्वनि के दुष्परिणामों से अवगत कराना काफी आवश्यक है ताकि समय रहते वे सुनने की क्षमता को लेकर होने वाली परेशानियों से बच सकें।
वल्र्ड हेल्थ आर्गेनाइजेशन की तरफ से ध्वनि को लेकर निर्धारित मानकों का प्रयोग, जिसमें यह तय किया गया है कि 55 डेसिबल से ज्यादा दिन में और 45 डेसिबल से ज्यादा शोर रात के समय में नहीं होना चाहिए उसका हजार गुना शोर हमारे शहरों में रहता है। जिसकी वजह से लोगों के सुनने की क्षमता काफी कम होती जा रही है। जो कि आगे चल कर बहरेपन के रूप में भी तब्दील हो जाती है। जिसे कि मेडिकल की भाषा में न्यॉज इन्ड्यूज हियरिंग लॉस कहा जाता है। तेज ध्वनि की वजह से हमारे शरीर पर किस तरह के दुष्प्रभाव पड़ सकते हैं इसे लेकर भारत के लोगों में जागरूकता काफी कम है। इसमें सुधार की काफी ज्यादा आवश्यकता हो चुकी है। नेशनल इनिशिएटिव फॉर सेफ साउंड की कन्वीनर डॉ. सारिका वर्मा ने बताया कि इस पूरे हफ्ते ध्वनि प्रदूषण को लेकर जागरूकता से संबंधित कार्यक्रम आयोजित किए जाएंगे। इस मौके पर नेशनल सेफ साउंड वीक की शुरूआत भी की गई।