भारतीय वैज्ञानिकों ने पाइपवोर्ट की दो नई प्रजातियों को खोजा

Font Size

नई दिल्ली : एक पादप समूह की दो नई प्रजातियों, जिन्हें उनके विभिन्न औषधीय गुणों के लिए जाना जाता है, को पश्चिमी घाट- जोकि जैविक विविधता के लिहाज से दुनिया के पैंतीस हॉट-स्पॉटों में से एक है – में खोजा गया है।

पाइपवोर्ट (इरियोकोलोन) के नाम से प्रसिद्ध यह पादप समूह, जो मानसून के दौरान एक छोटी अवधि के भीतर अपने जीवन चक्र को पूरा करता है, भारत की लगभग 111 प्रजातियों वाले पश्चिमी घाट की महान विविधता को दर्शाता है।

इस पादप समूह की अधिकांश प्रजातियां पश्चिमी घाट एवं पूर्वी हिमालय में पायी जाती हैं तथा इनमें से लगभग 70% देशज हैं। इनमें से एक प्रजाति, इरियोकोलोन सिनेरियम, अपने कैंसर रोधी, पीड़ानाशक, सूजनरोधी एवं स्तंभक गुणों के लिए प्रसिद्ध है। ई. क्विन्क्वंगुलारे का उपयोग यकृत रोगों के उपचार में किया जाता है। ई. मैडियीपैरेंस केरल में पाया जाने वाला एक जीवाणुरोधी है। खोजी गई इन नई प्रजातियों के औषधीय गुणों का पता लगाया जाना अभी बाकी है।

भारत सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग के एक स्वायत्त संस्थान, पुणे के अघरकर रिसर्च इंस्टीट्यूट (एआरआई) के वैज्ञानिकों ने हाल ही में महाराष्ट्र और कर्नाटक में पाइपवोर्ट की दो नई प्रजातियों को खोजाहै।

उन्हें पश्चिमी घाट की जैव विविधता का पता लगाने के क्रम मेंये नई प्रजातियां मिलीं। वे जीनस इरियोकोलोन के विकास के इतिहास के बारे में जानना चाहते थे और उन्होंने भारत, खासकर पश्चिमी घाट, से अधिक से अधिक प्रजातियों को इकट्ठा करने के लिए व्यापक प्रयास किये।

इस शोध के प्रमुख लेखक डॉ.रीतेश कुमार चौधरी ने कहा, “अपने संग्रह की बारीकी से जांच करने के क्रम में हम दो अभिगमों से रूबरू हुए जिसमें पहले से ज्ञात प्रजातियों की तुलना में अलग-अलग पुष्प चरित्र दिखाई दिए। इसलिए, हमने नवीनता की पुष्टि करने के लिए आकृति विज्ञान और उसके डीएनए का अध्ययन किया।”

डॉ. चौधरी ने बताया, “इरियोकोलोन से जुड़ी प्रजातियों की पहचान करना बहुत मुश्किल है क्योंकि वे सभी एक जैसे दिखते हैं। यही कारण है कि जीनस को अक्सर ‘वर्गीकरण शास्त्रियों (टैक्सोनोमिस्ट) के दुःस्वप्न’ के रूप में निरुपित किया जाता है। इसके छोटे फूल और बीज विभिन्न प्रजातियों के बीच अंतर करना मुश्किल बनाते हैं।” उनका यह शोध ‘फाइटोटैक्सा’ एवं ‘एनलिस बोटनीसी फेनिकी’ नाम की शोध पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ।

.

महाराष्ट्र के सिंधुदुर्ग जिले से मिली प्रजाति का नाम इरियोकोलोन पर्विसफलम (इसके सूक्ष्म पुष्पक्रम आकार के कारण) रखा गया और कुमता, कर्नाटक से प्राप्त हुई दूसरी प्रजाति का नाम इरियोकोलोन करावालेंस (करावली = तटीय कर्नाटक क्षेत्र के नाम पर) रखा गया।

चित्र : इरियोकोलोन करावालेंस

डॉ. चौधरी के पीएच.डी. छात्र अश्विनी दरशेटकर ने बताया, ““भविष्य के अध्ययन भारत में जीनस के विकास के इतिहास को स्पष्ट करने पर ध्यान केंद्रित करेंगे। सभी भारतीय प्रजातियों के बीच फ़ैलोजेनेटिक संबंधों की गहन जांच से भारत में खतरे वाली प्रजातियों के संरक्षण को प्राथमिकता देने में मदद मिलेगी। हम डीएनए बारकोड विकसित करने की भी कोशिश कर रहे हैं, जो हमें पत्ती के सिर्फ एक हिस्से के जरिए प्रजातियों की पहचान करने में सक्षम बनायेगा।”

[प्रकाशन लिंक :https://doi.org/10.5735/085.056.0417

विस्तृत विवरण के लिए, डॉ. रीतेश कुमार चौधरी से [email protected]के माध्यम से संपर्क किया जा सकता है।]

You cannot copy content of this page